Wednesday, January 16, 2008

Bahumulya harad

स्वास्थ्य़ अमृत
बहुमूल्य हरड़
रोगों को दूर कर शरीर को स्वस्थ रखने वाली औषधियों में हरड़ (हर्रे) सर्वश्रेष्ठ है। य़ह त्रिदोषशमक, बुद्धि, आयु, बल व नेत्रज्योतिवर्धक, उत्तम अग्निदीपक व संपूर्ण शरीर की शुद्धि करने वाली है। विभिन्न प्रकार से उपयोग करने पर सभी रोगों को हरती है।
चबाकर खायी हुई हरड़ अग्नि को बढ़ाती है। पीस कर खाय़ी हुई हरड़ मल को बाहर निकालती है। पानी में उबाल कर खाने से दस्त को रोकती है और घी में भूनकर खाने से त्रिदोषों का नाश करती है।
भोजन के पहले हरड़ चूस कर लेने से भूख बढ़ती है। भोजन के साथ खाने से बुद्धि, बल व पुष्टि में वृद्धि होती है। भोजन के बाद सेवन करने से अन्नपान-संबंधी दोषों को व आहार से उत्पन्न अवांछित वात, पित्त और कफ को तुरंत नष्ट कर देती है।
सेंधा नमक के साथ खाने से कफजन्य़, मिश्री के साथ खाने से पित्तजन्य, घी के साथ खाने से वाय़ुजन्य तथा गुड़ के साथ खाने से समस्त व्याधियों को दूर करती है।
हरड़ के सरल प्रयोग
1. मस्तिष्क की दुर्बलताः 100 ग्राम हरड़ की छाल व 250 ग्राम धनिया को बारीक पीस लें। इसमें सममात्रा में पिसी हुई मिश्री मिलाकर रखें। 6-6 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम पानी के साथ लेने से मस्तिष्क की दुर्बलता दूर हो कर स्मरणशक्ति बढ़ती है। कब्ज दूर होकर आलस्य व सुस्ती मिटती है और सारा दिन चित्त प्रसन्न रहता है।
2. अनन्तवात (Trigeminal Neuralgia)- पीली हरड़ की छाल व धनिया 100-100 ग्राम तथा 50 ग्राम मिश्री को अलग-अलग पीस के मिलायें। यह चूर्ण सुबह-शाम 6-6 ग्राम जल के साथ लेने से अनन्तवात की पीड़ा, जो अचानक कहीं माथे पर या कनपटी के पास होने लगती है नष्ट हो जाती है। इसमें वातवर्धक पदार्थों का त्याग आवश्यक है।
3. 2 ग्राम हरड़ व 2 ग्राम सोंठ के काढ़े में 10 से 20 मि.ली. अरण्डी का तेल मिलाकर सुबह सूर्य़ोदय़ के बाद लेने से गठिया, सायटिका, मुँह का लकवा व हर्निया में खूब लाभ होता है।
4. हरड़ चूर्ण गुड़ के साथ निय़मित लेने से वातरक्त (Gout) जिसमें उँगलियाँ तथा हाथ-पैर के जोड़ों में सूजन व दर्द होता है, नष्ट हो जाता है। इसमें वायुशामक पदार्थों का सेवन आवश्यक है।
5. हरड़ वीर्यस्राव को रोकती है, अतः स्वप्नदोष में लाभदायी है।
6. उल्टियाँ शुरू होने पर हरड़ का चूर्ण शहद के साथ चाटें। इससे दोष (रोग के कण) गुदामार्ग से निकल जाते हैं व उलटी शीघ्र बंद हो जाती है।
7. हरड़ चूर्ण गर्म जल के साथ लेने से हिचकी बंद हो जाती है।
8. हरड़ चूर्ण मुनक्के (8 से 10) के साथ लेने से अम्लपित्त में राहत मिलती है।
9. आँख आने पर तथा गुहेरी (आँख की पलक पर होने वाली फुँसी) में पानी में हरड़ घिसकर नेत्रों की पलकों पर लेप करने से लाभ होता है।
10. शरीर के किसी भाग में फोड़ा होने पर गोमूत्र में हरड़ घिसकर लेप करने से फोड़ा पक कर फूट जाता है, चीरने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
11. 3-4 ग्राम हरड़ के छिलकों का काढ़ा शहद के साथ पीने से गले का दर्द, टान्सिल्स तथा कंठ के रोगों में लाभ होता है।
12. छोटी हरड़, सौंफ, अजवायन, मेथीदाना व काला नमक समभाग मिलाकर चूर्ण बनायें। 1 से 3 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम गर्म जल के साथ कुछ दिन लेने से कान का बहना बंद हो जाता है। इन दिनों में दही का सेवन न करें।
हरड़ चूर्ण की सामान्य मात्रा 1 से 3 ग्राम।
हरड़ रसायन योग
हरड़ व गुड़ का सम्मिश्रण त्रिदोषशामक व शरीर को शुद्ध करने वाला उत्तम रसायन योग है। इसके सेवन से अजीर्ण, अम्लपित्त, संग्रहणी, उदरशूल, अफरा, कब्ज आदि पेट के विकार दूर होते हैं। छाती व पेट में संचित कफ नष्ट होता है, जिसमें श्वास, खाँसी व गले के विविध रोगों में भी लाभ होता है। इसके निय़मित सेवन से बवासीर, आमवात, वातरक्त (Gout), कमरदर्द, जीर्णज्वर, किडनी के रोग, पाडुरोग व यकृत विकारों में लाभ होता है। यह हृदय के लिए बलदाय़क व श्रमहर है।
विधिः 100 ग्राम गुड़ में थोड़ा सा पानी मिला कर गाढ़ी चासनी बना लें। इसमें 100 ग्राम बड़ी हरड़ का चूर्ण मिलाकर 2-3 ग्राम की गोलियाँ बना लें। प्रतिदिन 1 गोली चूस कर अथवा पानी से लें। यदि मोटा शरीर है तो 4 ग्राम भी ले सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद अगस्त 2007, पृष्ठ 28, 29
Visit http://www.myfullneeds.com

Varsha Ritu

वर्षा ऋतु विशेष
वर्षा ऋतु में प्राकृतिक स्थितिः
सूर्यः दक्षिणायण में होता है। मेघ, वायु, वर्षा से सूर्य का बल (तेज) कम हो जाता है।
चन्द्रः बल पूर्ण होता है।
वायुः नमी युक्त होती है।
जलः अम्ल रस युक्त होता है।
पृथ्वीः वर्षा के कारण पृथ्वी का ताप शांत होने से अम्ल, लवण, मधुर रसयुक्त, स्निग्ध आहार द्रव्यों व औषधियों की उत्पत्ति होने लगती है।
शारीरिक स्थितिः
बलः अत्यल्प।
जीवनीशक्तिः क्षीण।
जठराग्निः अत्यधिक दुर्बल।
दोषः वात का प्रकोप, पित्त का संशय।
हितकर आहारः
वर्षा ऋतु में वायु का शमन व जठराग्नि प्रदीप्त करने वाला आहार लेना चाहिए। इस हेतु भोजन में अदरक, लहसुन, नींबू, सोंठ, अजवायन, मेथी, जीरा, अल्प मात्रा में हींग, काली मिर्च, पीपरामूल का उपयोग करें।
जौ, गेहूँ, एक वर्ष पुराने चावल, परवल, सहिजन, जमीकंद, करेला, शिमला मिर्च, पुनर्नवा, मेथी, बथुआ, सुआ, पुदीना, बैंगन, लौकी (घीया), पेठा, तोरई आदि पचने में हलके व वायुशामक पदार्थ सेवनीय हैं।
मधु का सेवन इन दिनों में विशेष हितकर है। तिल तेल सभी गुणों से वायुशामक होने के कारण उत्तम है।
आँवला अथवा हरड़ का आचार, कोकम व लहसुन की चटनी, मूँग व कुलथी का सूप, भिगोये हुए मूँग, अदरक व गुड़ से बना अदरक पाक- ये सभी स्वाद, जठराग्नि व स्वास्थ्य बढ़ाने वाले हैं।
एक भाग पुनर्नवा में चौथाई भाग हरा धनिया, पुदीना व थोड़ी-सी काली मिर्च मिलाकर बनायी गयी चटनी भूखवर्धक व उत्तम पाचक है। यह यकृत, गुर्दे व हृदय के लिए हितकर है।
जलः
जल में 8-10 निर्मली के बीज मिला कर, उबाल कर ठंडा किया गया जल पीयें अथवा इन बीजों को कूट कर जल के पात्र में डाल कर रखें। इससे पानी निर्मल हो जाता है।
सोंठ, जीरा, नागरमोथ से सिद्ध जल उत्तम वात-पित शामक है। आकाश में जब तक बादल हों तब तक (सितम्बर महीने तक) इसका सेवन स्वास्थ्य में निश्चय ही सुधार लाता है।
वर्षा ऋतु में प्रातः 2-3 ग्राम हरड़ चूर्ण में चुटकी भर सेंधा नमक मिला कर ताज़े पानी के साथ लें।
पुनर्नवा अर्क व गोझरण अर्क का सेवन शरीर की शुद्धि व व्याधियों से सुरक्षा करने वाला है।
अहितकर आहारः
सूखे मेवे, मिठाई, दही, पनीर, मावा, रबड़ी, तले हुए, खमीरीकृत (इडली, खमण, ब्रेड आदि), बासी, पचने में भारी पदार्थ सर्वथा त्याज्य हैं।
चना, तुअर (अरहर), मटर, मसूर, राजमा, चौलाई, बाजरा, सेम, आलू, शकरकंद, पत्तागोभी, फूलगोभी, ग्वारफली, अरवी जैसे वायुवर्धक पदार्थ त्याज्य हैं।
हितकर विहारः
धूप, होम-हवन से वातावरण को शुद्ध रखें। वस्त्रों में नीम के सूखे पत्ते रखें। गोमूत्र से आश्रम में उपलब्ध गौसेवा फिनायल से घर को साफ-सुथरा रखें। नीम के सूखे पत्तों अथवा आश्रम द्वारा निर्मित गौ-चंदन धूपबत्ती से धूप करें। घर के आसपास अथवा बगीचे, नदी, तालाबों के किनारों पर तुलसी के पौधे लगाएँ। इससे बाह्य वातावरण, तन व मन शुद्ध एवं पवित्र होने में मदद मिलेगी।
तिल तेल अथवा वायुनाशक औषधियों से सिद्ध तेलों (दशमूल, महानारायण तेल आदि) से संपूर्ण शरीर की मालिश करें। कान में सरसों का तेल डालें, नाक में तिल तेल अथवा अणुतेल डालें, सिर तथा पैरों के तलुओं की मालिश करें। वर्षा ऋतु में बस्ति-उपक्रम (गुदा के द्वारा औषधियों को शरीर में प्रविष्ट करना) अत्यन्त लाभदायी है।
अहितकर विहारः
शीत जल से स्नान, नदी में स्नान, तैरना, ओस में अथवा आकाश बादलों से भरा हुआ हो तब खुले में छत आदि पर शयन, दिन में शयन, अधिक व्यायाम, अधिक परिश्रम, वाहनों में अधिक घूमना अथवा अधिक पैदल चलना निषिद्ध है।

वर्षा ऋतु के लिए वायुनाशक चूर्ण
छोटी हरड़ (बाल हर्र) को प्रथम दिन छाछ में भिगोकर रखें। दूसरे दिन छाया में सुखायें। इस प्रकार 3 से 6 बार भिगोकर सुखाने के बाद हरड़ का कपड़छान चूर्ण बनायें। 1 भाग हरड़ चूर्ण में चौथाई भाग अजवायन व आठवाँ भाग काला नमक मिला कर रखें।
लगभग 2 ग्राम मिश्रण भोजन के बाद गुनगुने पानी के साथ लें। इससे पाचन शक्ति बढ़ती है, पेट साफ होता है। मंदाग्नि, अजीर्ण, पेट में वायु, दर्द, डकार आदि का यह श्रेष्ठ इलाज है।
बहुगुणी, स्वादिष्टः अदरक पाक
छीलकर कद्दकस किया हुआ अदरक 500 ग्राम, पुराना गुड़ 500 ग्राम और गाय का घी 125 ग्राम लें। अदरक को घी में लाल होने तक भून लें। गुड़ की चासनी बनाकर उसमें भूना हुआ अदरक तथा इलायची, जायफल, जावित्री, लौंग, दालचीनी, काली मिर्च, नागकेसर प्रत्येक 6-6 ग्राम मिला कर सुरक्षित रख लें।
10 से 20 ग्राम पाक सुबह-शाम चबाकर खायें। यह उत्तम वात-पित्त-कफ नाशक, अग्निदीपक, पाचक, मलनिस्सारक, रूचिप्रद व कंठ के लिए हितकर है। दमा, खाँसी, जुकाम, स्वर-भंग, अरूचि आदि कफ-वात जन्य विकारों में व मंदाग्नि, कब्ज, भोजन के बाद पेट में भारीपन, अफरा अथवा दर्द तथा शरीर के किसी भी अंग में होने वाले दर्द में इस पाक के सेवन से बहुत लाभ होता है। शरीर में चुस्ती व स्फूर्ति भी आती है।
सावधानीः पित्त प्रकृतिवाले तथा पित्तजन्य व्याधियों से ग्रस्त व्यक्ति इस पाक का सेवन न करें।
दाँतों
के लिए
प्रयोग • रात को नींबू के रस में दातुन के अगले हिस्से को डुबो दें। सुबह उस दातुन से दाँत साफ करें तो मैले दाँत भी चमक जायेंगे।
• सप्ताह-पन्द्रह दिन में एक बार रात को सरसों का तेल और सेंधा नमक मिला के इससे दाँतों को रगड़ लें। इससे दाँत और मसूड़े मज़बूत बनेंगे। - परम पूज्य बापू जी

-------------------------------------------------------------
वैद्यराज धनशंकर जी कहते हैं
रक्तशुद्धिकर, पित्तशामक
नीम अर्क
नीम के पत्तों से बना यह अर्क रक्त को शुद्ध करने वाली बहुमूल्य औषधि है। यह दाद, खाज, खुजली, कील मुहाँसे तथा पुराने त्वचा विकारों में अत्यन्त लाभदायक है। यह उत्तम कृमिनाशक, दाह व पित्तशामक है। पीलिया, पांडु, रक्तपित्त, अम्लपित्त, उलटी, प्रमेह, विसर्प (हरपिझ) व लीवर के रोगों को दूर करने वाला है। यह बालों को झड़ने से रोकता है। रक्तप्रदर, गर्भाशय शोथ, खूनी बवासीर आँखों के रोगों में भी लाभदायक है।
सेवन विधिः 10 से 30 मि.ली. अर्क (बालकों हेतु- 2 से 5 मि.ली.) समभाग पानी मिलाकर दिन में 2 बार।
विशेषः चर्मरोग में 5 लिटर पानी में 50 मि.ली. अर्क मिला कर स्नान करें। 15 दिन तक ही इसका नियमित सेवन करें। तत्पश्चात 4-5 दिन बंद करके पुनः ले सकते हैं।
शीतल, कफनाशक
वासा (अडूसा) अर्क
वासा अर्क संचित कफ को पतला कर बाहर निकाल देता है। अतः यह फुफ्फुस विकार, गले में सूजन, श्वास (दमा), खाँसी, कफजन्य, ज्वर तथा अन्य सभी प्रकार के कफ विकारों में क्षयरोग में बहुत लाभदायी है। यह रक्तगतपित्त को शांत करता है। नाक, आँख, मुँह, योनि, पेशाब आदि के द्वारा होने वाले रक्तस्राव की यह अद्वितिय औषधी है। खूनी बवासीर व खूनी दस्त भी लाभदायी है।
सेवन विधिः 20 से 40 मि.ली. अर्क (बालकों हेतु- 5 से 10 मि.ली.) दिन में 2 से 3 बार लें।
स्मृतिवर्धक, कैंसर-निवारक
तुलसी अर्क
धर्मशास्त्रों में तुलसी को अत्यन्त पवित्र तथा माता के समान माना गया है। तुलसी एक उत्कृष्ट रसायन है। आज के विज्ञानियों ने इसे एक अदभुत औषधि (Wonder Drug) कहा है।
लाभः यह कफजन्य ज्वर, विषमज्वर (विशेषतः मलेरिया), सर्दी-जुकाम, श्वास, खाँसी, अम्लपित्त, दस्त, उलटी, हिचकी, मुख की दुर्गन्ध, मंदाग्नि, कृमि, पेचिश में लाभदायी व हृदय के लिए हितकर है। यह रक्त में से अतिरिक्त स्निग्धांश को हटाकर रक्त को शुद्ध करता है। यह सौंदर्य, बल, ब्रह्मचर्य एवं स्मृति वर्धक व कीटाणु, त्रिदोष और विषनाशक है।
सेवनविधिः 10 से 20 मि.ली. अर्क में उतना ही पानी मिला कर खाली पेट ले सकते हैं। रविवार को न लें। तुलसी अर्क लेने से पूर्व व पश्चात डेढ़-दो घंटे तक दूध न लें।
शरीर के पुनः नयापन देने वाला
पुनर्नवा अर्क
पुनर्नवा शरीर के कोशों को नया जीवन प्रदान करने वाली श्रेष्ठ रसायन औषधि है। यह कोशिकाओं में से सूक्ष्म मलों को हटाकर संपूर्ण शरीर की शुद्धि करती है, जिससे किडनी, लीवर, हृदय आदि अंग-प्रत्यंगों की कार्यशीलता व मजबूती बढ़ती है तथा युवावस्था दीर्घकाल तक बनी रहती है।
लाभः यह अर्क किडनी की सूजन, मूत्राश्मरी (पथरी), उदररोग, सर्वांगशोथ (सूजन), हृदय दौर्बल्यता, श्वास, पीलिया, पांडु (रक्ताल्पता), जलोदर, बवासीर, भगंदर, हाथीपाँव, खाँसी, तथा लीवर के रोग व जोड़ों के दर्द में विशेष लाभदायी है। यह हृदयस्ध रक्तवाहियों को साफ कर हृदय को मजबूत बनाता है। आँखों हेतु भी हितकारी है। इसके सेवन से आँखों का तेज़ बढ़ता है। बाल घने व काले होते हैं। यह अनिद्रानाशक व पित्तशामक है।
सेवनविधिः 20 से 50 मि.ली. अर्क आधी कटोरी पानी में मिला कर दिन में एक या दो बार लें। इसके सेवन के बाद एक घंटे तक कुछ न लें।
केवल साधक परिवारों के लिए संत श्री आसारामजी आश्रमों व सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध
स्रोतः जुलाई 2007 ऋषि प्रसाद पृष्ठ 28, 29, 30
Visit http://www.myfullneeds.com

Jamun

शरीर स्वास्थ्य
जामुन
वर्षा ऋतु के आरम्भ में अर्थात जून-जुलाई में जामुन के फल परिपक्व होते हैं। जामुन स्वादिष्ट फल तथा गुणकारी औषधी भी है। इसके फल, गुठली, छाल, पत्ते सभी औषधीय गुणों से सम्पन्न हैं। जामुन में कैल्शियम, फॉस्फोरस, व विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
यह कफ व पित्त का शमन करता है परंतु प्रबल वायुवर्धक है। इसके सेवन से पित्त के कारण होने वाली कंठ की शुष्कता, जलन व आंतरिक गर्मी दूर होती है। दाँत व मसूड़े मजबूत बनते हैं, दाँतों के कृमि नष्ट होते हैं। यह उत्तम कृमिनाशक व थकावट दूर करनेवाला है। अधिक सेवन से मलावरोध करता है।
यह यकृत (Liver) व तिल्ली (Spleen) की कार्यक्षमता बढ़ाता है जिससे पाचनशक्ति में वृद्धि होकर नवीन रक्त की उत्पत्ति में सहायता मिलती है।
जामुन के बीजों का उपयोग विशेषतः मधुमेह में किया जाता है। इनमें स्थित जम्बोलिन नामक ग्लुकोज़ स्टार्च के शर्करा में होने वाले विकृत रूपांतरण को रोकता है। छाया में सुखाये गये गुठलियों का चूर्ण छः-छः ग्राम दिन में दो-तीन बार लेना मधुमेह में लाभदायी है।
जामुन के कोमल पत्तों का रस पित्तशामक होने के कारण उलटी तथा रक्तपित्त में बहुत लाभदायी है।
महिलाओं के अत्यधिक मासिक स्राव में जामुन के कोमल पत्तों का 20 मि.ली। रस मिश्री में मिलाकर सुबह-शाम लेना चाहिए।
अधिक व बार-बार पेशाब होने पर जामुन-बीज का चूर्ण व पिसे हुए काले तिल समभाग मिलाकर 3-3 ग्राम मिश्रण दिन में 2 बार लें। अन्य औषधी-प्रयोगों से थके-हारे रूग्णों को भी इस प्रयोग से राहत मिलती है। बच्चों के बिस्तर में पेशाब करने की आदत में 2 ग्राम मिश्रण 2 बार पानी के साथ दें।
जामुन के पत्तों को जलाकर बनाए हुए भस्म का मंजन करने से मसूड़ों के रोग नष्ट होते हैं।
सावधानीः जामुन का सेवन भोजन के आधा एक घंटे बाद सीमित मात्रा में करना चाहिए। खाली पेट जामुन खाने से अफरा हो जाता है। सेंधा नमक, धनिया और काली मिर्च का चूर्ण छिड़क कर खाना अधिक हितावह है। जामुन के अधिक सेवन से फेफड़ों में कफ जमा हो जाता है।
स्मृतिवर्धक, कैंसर निवारक, त्रिदोषनाशक
तुलसी अर्क
धर्मशास्त्रों में तुलसी को अत्यंत पवित्र व माता के समान माना गया है। तुलसी एक उत्कृष्ट रसायन है। आज के विज्ञानियों ने इसे एक अदभुत औषधी (Wonder Drug) कहा है।
मात्राः 10 से 20 मि.ली. अर्क में उतना ही पानी मिलाकर खाली पेट ले सकते हैं। रविवार को न लें। तुलसी अर्क लेने के पूर्व व बाद के डेढ़-दो घंटे तक दूध न लें।
लाभः यह सर्दी जुकाम, खाँसी, एसिडिटी, ज्वर, दस्त, उलटी, हिचकी, मुख की दुर्गंध, मंदाग्नि, पेचिस में लाभदायी व हृदय के लिए हितकर है। यह रक्त में से अतिरिक्त स्निग्धांश को हटाकर रक्त को शुद्ध करता है। यह सौंदर्य, बल, ब्रह्मचर्य एवं स्मृति वर्धक व कीटाणु, त्रिदोष और विष नाशक है।
शरीर को पुनः नयापन देने वाला
पुनर्नवा अर्क
पुनर्नवा शरीर के कोशों को नया जीवन प्रदान करने वाली श्रेष्ठ रसायन औषधी है। यह कोशिकाओं में से सूक्षम मलों को हटाकर संपूर्ण शरीर की शुद्धि करती है, जिससे किडनी, लीवर, हृदय आदि अंग-प्रत्यंग की कार्यशीलता व मजबूती बढ़ती है तथा युवावस्था दीर्घकाल तक बनी रहती है।
लाभः यह अर्क किडनी व लीवर के रोग, उदररोग, सर्वाँगशोथ (सूजन), श्वास, पीलिया, जलोदर (Ascitis), पांडु (रक्ताल्पता), बवासीर, भगंदर, हाथीपाँव, खाँसी तथा जोड़ों के दर्द में विशेष लाभदायी है। यह हृदयस्थ रक्तवाहिनियों को साफ कर हृदय को मजबूत बनाता है। आँखों के लिए भी हितकारी है।
मात्राः 20 से 50 मि.ली. अर्क आधी कटोरी पानी में मिलाकर दिन में एक या दो बार लें। इसके सेवन के बाद एक घंटे तक कुछ न लें।
केवल साधक परिवार के लिए संत श्री आसारामजी आश्रमों व सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध।
Visit http://www.myfullneeds.com

Amrakalp

शरीर स्वास्थ्य
आम्रकल्पः एक मधुर कल्प
नमकीन, चरपरे, तले हुए व चीनी से बने पदार्थों की अधिकता वाला आज का असंतुलित भोजन पाचनशक्ति को बिगाड़ रहा है, साथ ही सारे रक्त में अम्लता बढ़ाकर अनेक रोग पैदा कर रहा है। सारे अप्राकृतिक खाद्यों पिंड छुड़ा के उपर्युक्त दोषों को दूर कर कायाकल्प करने वाला प्रयोग है आम्रकल्प (आम का कल्प)। माँ पार्वती जी का प्रिय यह स्वर्गीय फल भगवान शिवजी ने धरती पर प्रकट किया।
आम का पका फल वीर्य, बल, जठराग्नि, शुक्र व कफ वर्धक, वातनाशक, मधुर, स्निग्ध, शीतल, हृदय के लिये हितकर, वर्ण निखारने वाला होता है। इसमें कार्बोहाईड्रेट, प्रोटीन, वसा, क्षार, कैल्शियम, फास्फोरस, लौह एवं विटामिन ए, बी, सी व डी पाये जाते हैं। गाय का दूध अत्यन्त स्वादिष्ट, स्निग्ध, मधुर, शीतल, रूचिकर तथा रक्त, बल वीर्य, स्मृति, बुद्धि व आयुष्य वर्धक एवं रोगनाशक है। आम के प्रोटीन-बाहुल्य व दूध के स्निग्धता-बाहुल्य का सुमेल शरीर के लिए अमृततुल्य प्रभाव दिखाता है।
कल्प के लिए आमः जिस आम में रेशा बहुत कम, गूदा अधिक व जिसका स्वाद खूब मीठा होता है वह उत्तम है। कल्प के लिए उत्तम जाति के पतले रसवाले देशी आम लें, खट्टे आम हानि करते हैं। पतले रस वाले आम न मिलें तो गाढ़े रस वाले ले सकते हैं।
प्रयोग विधिः एक दिन उपवास कर फिर कल्प शुरू करें। उपवास के दिन केवल गुनगुना पानी लें। आमों को 4 घंटे जल में भिगो दें (आम फ्रिज में न रखें), फिर अच्छी तरह धोकर उसके मुँह के ऊपर का हिस्सा अलग करके वहाँ से दो-चार बूँद रस निकाल दें। फिर धीरे-धीरे चूसें। रस को लार में खूब घुला-घुलाकर लेना चाहिए। आम का रस निकाल कर उपयोग में लाने पर वह भारी हो जाता है, अतः चूसकर खाना ही उत्तम है।
कल्प के प्रथम तीन-चार दिन केवल आमरस व पानी पर ही रहें, जिससे आँतों में पुराने मल की सड़न से पैदा हुए कृमियों का नाश हो जाएगा एवं मित्र कृमियों की संख्या बढ़ेगी, फलतः पाचन व निष्कासन क्रिया दुरूस्त होगी एवं यदि वायु होती है तो शांत होगी।
सामान्य पाचनशक्ति वाले व्यक्ति दिन में दो बार आम का रस व दो बार दूध ले सकते हैं। आम उतनी ही मात्रा में लें कि दुग्धाहार के समय भूख कसकर लगे। शुरूआत में एक बार में 250 मि.ली. दूध पर्याप्त है। आम एवं दूध की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ायें। आम व दूध के सेवन में 2-3 घंटे का अंतर रखें तथा सूर्यास्त के बाद आम का सेवन न करें। दूध को चुसकी लेते हुए पीयें, इससे दूध और भी सुपाच्य हो जाएगा।
इस प्रयोग के दौरान अन्य आहार नहीं लेना है। प्यास लगने पर पानी ज़रूर पीयें। यदि वायु या कफ का जोर दिखाई पड़े तो आम-सेवन से पूर्व सेंधा नमक के साथ अदरक के टुकड़े खायें। इस प्रकार 40 दिन तक केवल आम और दूध पर रहें। कल्प का विशेष लाभ लेना हो तो 40 दिन के बाद एक-दो माह तक दिन में एक बार सुपाच्य भोजन और सुबह आम व रात को दूध को सेवन करें।
(जो 2-3 हफ्ते से ज़्यादा समय तक कल्प न कर पायें, वे दोपहर को मूँग की दाल व रोटी तथा सुबह आम एवं रात को दूध का सेवन कर सकते हैं।)
लाभः आम्रकल्प से पाचनक्रिया शुद्ध होकर पुराने कब्ज, मंदाग्नि, अम्लपित्त, संग्रहणी, अरूचि, क्षय, यकृतवृद्धि, स्नायु व धातु दौर्बल्य, वायु, अनिद्रा, रक्तचाप की कमी या अधिकता तथा हृदय रोग में बहुत लाभ पहुँचता है।
आम का विटामिन ए बाहर के विषों से शरीर की रक्षा करता है व विटामिन सी चर्मरोगों को खत्म करता है। इस कल्प से रक्त, वीर्य, बल व कांति की वृद्धि होती है।
स्वास्थ्य व स्वादप्रद अमावट (अमरस)- पके आम के रस को निकाल के कपड़े पर पसार कर धूप में सुखायें। जब सूख जाय तब उसी पर पुनः रस डालें व सुखायें। इससे जो मोटी परत तैयार होती है उसी को अमावट कहते हैं। यह प्यास, वमन, वात व पित्त का नाशक, सारक, रोचक तथा सुपाच्य होता है।

-------------------------------------------------------------------------
Visit http://www.myfullneeds.com

Sharir Swasthya 2

शरीर स्वास्थ्य
ग्रीष्मजन्य व्याधियों के उपाय
1. सर्वांगदाहः शतावरी चूर्ण (2 से 3 ग्राम) अथवा शतावरी कल्प (1 चम्मच) दूध में मिला कर सुबह खाली पेट लें। आहार में दूध चावल अथवा दूध रोटी लें। आश्रम द्वारा निर्मित रसायन चूर्ण तथा आंवला चूर्ण का प्रयोग करें। दोपहर के समय गुलकन्द चबा-चबा कर खाएँ। इससे प्यास, जलन, घबराहट आदि लक्षण दूर हो जाते हैं।
शीत, मधुर, पित्त व दाहशामक खरबूजे का सेवन भी बहुत ही लाभदायी है किंतु दृष्टि व शुक्र धातु का क्षय करने वाले तरबूज का सेवन थोड़ी सावधानी से अल्प मात्रा में ही करना अच्छा है।
2. आँखों की जलनः ऱूई का फाहा गुलाबजल में भिगोकर आँखों पर रखें।
त्रिफला चूर्ण (3 ग्राम) पानी में भिगोकर रखें। 2 घंटे बाद कपड़े से छान कर उस पानी से आँखों में छींटे मारें। बचे हुए त्रिफला चूर्ण का पानी के साथ सेवन करें।
3. नकसीर फूटनाः गर्मी के कारण नाक से रक्त आने पर ताजा हरा धनिया पीसकर सिर पर लेप करने से तथा इसका 2-4 बूँद रस नाक में डालने से शीघ्र लाभ होता है। धनिया की जगह दूर्वा का उपयोग विशेष लाभदायी है।
4. लू लगनाः थोड़े-थोड़े समय पर गुड़ व भूना हुआ जीरा मिश्रित पानी पीयें। आम का पना, इमली अथवा कोकम का शरबत पीयें। प्याज व पुदीने का उपयोग भी लाभदाय़ी है।
लू व गर्मी से बचने के लिए रोजाना शहतूत खाएँ। इससे पेट तथा पेशाब की जलन दूर होती है। नित्य शहतूत खाने से मस्तिषक को ताकत मिलती है।
5. पैरों का फटनाः अत्यधिक गर्मी से पैरों की त्वचा फटने लगती है। उस पर अरंडी का तेल या घी लगायें। पैरों के तलुवों में इसे लगाकर काँसे की कटोरी से घिसने से शरीरांतर्गत गर्मी कम हो जाती है तथा आँखों को भी आराम मिलता है। पैरों के तलुवों से आँखों का सीधा संबंध है। क्योंकि पैरों के तलुवों से निकलने वाली दो नसें आँखों तक पहुँचती हैं, जिससे पैरों में जलन होने पर आँखों में भी जलन होने लगती है। इसलिए गर्मियों में प्लास्टिक अथवा रबड़ की चप्पल नहीं पहननी चाहिए।
6. पेशाब में जलनः तुलसी की जड़ के पास वाली मिट्टी छानकर उसे पानी में मिलाएं। सूती वस्त्र पर वह मिट्टी लगा कर नाभि के नीचे पेड़ू पर रखें। पट्टी सूखने पर बदल दें। गीली मिट्टी की ठंडक पेट की गर्मी को खींच लेती है। यह प्रयोग कुछ समय तक लगातार करने से पेशाब की जलन पूर्णतः मिट जाती है। इसके साथ 100 मि.ली. दूध में 3 से 5 ग्राम शतावरी चूर्ण तथा थोड़ी सी मिश्री मिलाकर 1 से 2 बार लें।
7. शीतला (चिकन पोक्स)- गर्मियों में बच्चों को होने वाली इस बीमारी में ज्वर, सर्दी व खाँसी के साथ पूरे शरीर पर राई जैसी छोटी-छोटी फुंसियाँ निकल आती हैं।
शीतला होने की संभावना दिखायी देने पर शीघ्र ही पर्पटादी क्वाथ
(परिपाठादि काढ़ा) का उपयोग करें। यह आयुर्वैदिक दवाईयों की दुकान से सहज मिल जाता है। इससे व्याधि की तीव्रता कम हो जाती है।
शीतला निकलने पर जब तक बुखार हो, तब तक बच्चे को नहलाना नहीं चाहिए। आहार में मूँग का पानी अथवा चावल का पानी दें। सब्जी, रोटी, दूध, फल आदि बिल्कुल न दें। इससे व्याधि गम्भीर रूप धारण कर सकती है। फुँसियाँ सूखने पर नीम के पत्ते पानी में उबाल कर उस पानी से बच्चे को नहलायें तथा वचा चूर्ण शरीर पर मल कर ही कपड़े पहनायें।

शरीर स्वास्थ्य
सुलभ एक्युप्रेशर चिकित्सा
प्रसूति की पीड़ा कम करने हेतुः

दोनों पैरों में टखनों के ऊपर अंदर की तरफ चित्र में दर्शाये गये बिन्दुओं पर भारपूर्वक दो मिनट तक दबाव दें। फिर थो़ड़ा रूक कर पुनः दबाव दें। इस प्रकार बालक का जन्म होने तक रूक-रूक कर दबाव देते रहें। इससे प्रसूति की पीड़ा कम होगी।
नकसीर फूटना, बेहोश होना तथा लू एवं गर्मी लगने परः

उँगलियों के सिरे पर तथा चित्रानुसार नाक के नीचे तथा होंठ के ऊपर मध्य बिन्दु पर जोर से दबाव दें और चन्द्रभेदी प्राणायाम करें।
चन्द्रभेदी प्राणायाम की विधिः प्रातः पद्मासन अथवा सुखासन में बैठकर दायें नथुने को बंद करें और बायें नथुने से धीरे-धीरे अधिक-से-अधिक गहरी श्वास भरें। श्वास लेते समय आवाज़ न हो इसका ख्याल रखें। अब अपनी क्षमता के अनुसार श्वास भीतर ही रोक रखें। जब श्वास न रोक सकें तब दायें नथुने से धीरे-धीरे बाहर छोड़ें। झटके से न छोड़ें। इस प्रकार 3 से 5 प्राणायाम करें।
सावधानीः कफ प्रकृतिवालों व निम्न रक्तचापवालों के लिए यह प्राणायाम निषिद्ध है। अतः वे केवल उपरोक्त बिन्दुओं पर दबाव दें।
दवाओं के कुप्रभावों से बचने हेतुः

एल.एस.डी. (मारीजुआना), नींद की गोलियाँ, अफीम, गाँजा आदि के सेवन से हुआ कुप्रभाव दूर करने के लिए चित्रानुसार दोनों कानों के ऊपरी भाग से तीन ऊपर के बिंदु पर भारपूर्वक दो-तीन मिनट तक दबाव दें, दवाओं का दुष्प्रभाव दूर हो जाएगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद अप्रैल 2007, पृष्ठ 30, 31.
Visit http://www.myfullneeds.com

Sharir Swasthya

शरीर स्वास्थ्य
स्वास्थय के लिए हितकर-अहितकर
प्राचीन काल में भगवान पुनर्वसु आत्रेय ने मनुष्यों के लिए स्वभाव से ही हितकर व अहितकर बातों का वर्णन करते हुए भारद्वाज, हिरण्याक्ष, कांकायन आदि महर्षियों से कहाः
हितकर भाव
आरोग्यकर भावों में समय पर भोजन, सुखपूर्वक पचनेवालों में एक समय भोजन, आयुवर्धन में ब्रह्मचर्य पालन, शरीर की पुष्टि में मन की शान्ति, निद्रा लाने वालों में शरीर का पुष्ट होना तथा भैंस का दूध, थकावट दूर करने में स्नान व शरीर में दृढ़ता उत्पन्न करने वालों में व्यायाम सर्वश्रेष्ठ है।
वात और पित्त को शांत करने वालों में घी, कफ व पित्त को शांत करने वालों में शहद तथा वात और कफ को शांत करने में तिल का तेल श्रेष्ठ है।
वायुशामक व बलवर्धक पदार्थों में बला, जठराग्नि को प्रदीप्त कर पेट की वायु को शांत करने वालों में पीपरामूल, दोषों को बाहर निकालने वाले, अग्निदीपक व वायुनिस्सारक पदार्थों में हींग, कृमिनाशकों में वायविडंग, मूत्रविकारों में गोखरू, दाह दूर करने वालों में चंदन का लेप, संग्रहणी व अर्श (बवासीर) को शांत करने में प्रतिदिन तक्र (मट्ठा) सेवन सर्वश्रेष्ठ है।

अहितकर भाव
रोग उत्पादक कारणों में मल-मूत्र आदि के वेगों को रोकना, आयु घटाने में अति मैथुन, जीवनशक्ति घटाने वालों में बल से अधिक कार्य करना, बुद्धि स्मृति व धैर्य को नष्ट करने में अजीर्ण भोजन (पहले सेवन किये हुए आहार के ठीक से पचने से पूर्व ही पुनः अन्न सेवन करना), आम दोष उत्पन्न करने में अधिक भोजन तथा रोगों को बढ़ाने वाले कारणों में विषाद (दुःख) प्रधान है।
शरीर को सुखा देने वालों में शोक, पुंस्त्वशक्ति नष्ठ करने वालों में क्षार, शरीर के स्रोतों में अवरोध उत्पन्न करने वाले पदार्थों में मंदक दही (पूर्ण रूप से न जमा हुआ दही) तथा वायु उत्पन्न करने वालों में जामुन मुख्यतम है।
स्वास्थ्यनाशक काल में शरद् ऋतु, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक जल में वर्षा ऋतु की नदी का जल, वायु में पश्चिम दिशा की हवा, ग्रीष्म ऋतु की धूप व भूमि में आनूप देश (जहाँ वृक्ष और वर्षा अधिक हो, धूप कम हो, क्वचित सूर्य-दर्शन भी दुर्लभ हों) मुख्यतम हैं।
स्वास्थ्य व दीर्घायुष्य की कामना करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि हितकर पदार्थों के सेवन के साथ अहितकर पदार्थों का त्याग करे।
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम्, यज्जःपुरूषीयाध्याय 25)

सुलभ प्रसव के लिएः मूलबंध
सगर्भावस्था में प्रसवकाल तक मूलबंध का नियमित अभ्यास करने से प्रसव सुलभता से हो जाता है। मूलबंध माना गुदा (मलद्वार) को सिकोड़ कर रखना जैसे घोड़ा संकोचन करता है। इससे योनि की पेशियों में लचीलापन बना रहता है, जिससे पीड़ारहित प्रसव में सहायता मिलती है। प्रसूति के बाद भी माताओं को मूलबंध एवं अश्विनी मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। अश्विनी मुद्रा अर्थात् जैसे घोड़ा लीद छोड़ते समय गुदा का आकुंचन-प्रसरण करता है, वैसे गुदाद्वार का आकुंचन-प्रसरण करना। लेटे-लेटे 50-60 बार यह मुद्रा करने से वात-पित्त-कफ इन त्रिदोषों का शमन होता है, भूख खुल कर लगती है तथा सगर्भावस्था की अवधि में तने हुए स्नायुओं को पुनर्स्वास्थ्य पाने में सहायता मिलती है। श्वेत प्रदर (ल्यूकोरिया), योनिभ्रंश (प्रोलॅप्स) व अनियंत्रित मूत्रप्रवृत्ति के उपचार में मूलबंध का अभ्यास अत्युत्तम सिद्ध हुआ है।


स्रोतः ऋषि प्रसाद मार्च 2007, पृष्ठ 30
Visit http://www.myfullneeds.com

Swasthya Sanjivani

स्वास्थ्य संजीवनी
वसन्त ऋतु में ध्यान दें।
• वसन्त ऋतु में भारी, अम्लीय, स्निग्ध और मधुर आहार का सेवन व दिन में शयन वर्जित है।
• वसन्ते भ्रमणे पथ। वसन्त ऋतु में खूब पैदल चलना चाहिए। व्यायाम कसरत विशेष रूप से करना चाहिए।
• इन दिनों में तेल-मालिश, उबटन लगाना व नाक में तेल(नस्य) डालना विशेष लाभदायी है। नस्य व मालिश के लिए तिल तेल सर्वोत्तम है।
• अन्य ऋतुओं की अपेक्षा वसन्त ऋतु में गौमूत्र का सेवन विशेष लाभदाय़ी है।
• सुबह 3 ग्राम हरड़ चूर्ण में शहद मिलाकर लेने से भूख खुलकर लगेगी। कफ का भी शमन हो जाएगा।
• इन दिनों में हलके, रूखे, कड़वे, कसैले पदार्थ, लोहासव, अश्वगंधारिष्ट अथवा दशमूलारिष्ट का सेवन हितकर है।
• हरड़ चूर्ण को गौमूत्र में धीमी आँच पर सेंक लें। जलीय भाग जल जाने पर उतार लें। इसे गौमूत्र हरितकी कहते हैं। रात को 3 ग्राम चूर्ण गुनगुने पानी के साथ लें। इससे गौमूत्र व हरड़ दोनों के गुणों का लाभ मिलता है।
कड़वा रसः स्वास्थ्य-रक्षक उपहार
वसन्त ऋतु में कड़वे रस के सेवन का विशेष लाभदाय़ी है। इस ऋतु में नीम की 15-20 कोंपलें व तुलसी की 5-10 कोमल पत्तियाँ 2-3 काली मिर्च के साथ चबा-चबाकर खानी चाहिए। ब्रह्मलीन स्वामी श्री लीलाशाह जी यह प्रयोग करते थे। पूज्य बापू जी कभी-कभी यह प्रयोग करते हैं। इसे 15-20 दिन करने से वर्ष भर चर्म रोग, रक्तविकार और ज्वर आदि रोगों से रक्षा करने की प्रतिरोधक शक्ति पैदा होती है। इसके अलावा नीम के फूलों का रस 7 से 15 दिन तक पीने से त्वचा के रोग और मलेरिया जैसे ज्वर से भी बचाव होता है। इस ऋतु में सुबह खाली पेट हरड़ का चूर्ण शहद के साथ सेवन करने से लाभ होता है।
19 मार्च को चैत्री नूतन वर्षारंभ अर्थात् गुड़ी पड़वा (वर्ष प्रतिपदा) है। इस दिन स्वास्थ्य-सुरक्षा तथा चंचल मन की स्थिरता के लिए नीम की पत्तियों को मिश्री, काली मिर्च, अजवायन आदि के साथ प्रसाद के रूप में लेने का विधान है। आजकल अलग-अलग प्रकार के बुखार, मलेरिया, टायफायड, आंतों के रोग, मधुमेह, मेदवृद्धि, कोलस्टेरोल का बढ़ना, रक्तचाप जैसी बीमारियाँ बढ़ गयी हैं। इसका प्रमुख कारण भोजन में कड़वे रस का अभाव है। भगवान आत्रेय ने चरक संहिता में कहा हैः
तिक्तो रसः स्वमरोचिष्णुरप्यरोचकघ्नो विषघ्नः कृमिघ्नो मूर्च्छादाहकण्डू कुष्ठतृष्णाप्रशमनस्त्वङ् मांसयोः स्थिलीकरणो ज्वरघ्नोदीपनः पाचनः स्तन्यशोधनो लेखनः क्लेदमेदोवसामज्जलसीकापूयसवेदमूत्रपुरीषपित्तश्लेष्मोशोषणो रूक्षः शीतो लघुश्च।
कड़वा रस स्वयं अरूचिकर होता है किंतु सेवन करने पर अरूचि को दूर करता है। यह शरीर के विष व कृमि को नष्ट करता है, मूर्च्छा (बेहोशी), जलन, खुजली, कोढ़ और प्यास को नष्ट करता है, चमड़े व मांसपेशियों में स्थिरता उत्पन्न करता है (उनकी शिथिलता को नष्ट करता है)। यह ज्वरशामक, अग्निदीपक, आहारपाचक, दुग्ध का शोधक और लेखन (स्थूलता घटाने वाला) है। शरीर का क्लेद, मेद, चर्बी, मज्जा, लसीका (lymph), पीब, पसीना, मल, मूत्र, पित्त और कफ को सुखाता है। इसके गुण रूक्ष, शीत और लघु हैं।


(सूत्रस्थान, अध्याय-26)
स्रोतः ऋषि प्रसाद फरवरी 2007, पृष्ठ संख्या 29.
Visit http://www.myfullneeds.com