Wednesday, January 16, 2008

Bahumulya harad

स्वास्थ्य़ अमृत
बहुमूल्य हरड़
रोगों को दूर कर शरीर को स्वस्थ रखने वाली औषधियों में हरड़ (हर्रे) सर्वश्रेष्ठ है। य़ह त्रिदोषशमक, बुद्धि, आयु, बल व नेत्रज्योतिवर्धक, उत्तम अग्निदीपक व संपूर्ण शरीर की शुद्धि करने वाली है। विभिन्न प्रकार से उपयोग करने पर सभी रोगों को हरती है।
चबाकर खायी हुई हरड़ अग्नि को बढ़ाती है। पीस कर खाय़ी हुई हरड़ मल को बाहर निकालती है। पानी में उबाल कर खाने से दस्त को रोकती है और घी में भूनकर खाने से त्रिदोषों का नाश करती है।
भोजन के पहले हरड़ चूस कर लेने से भूख बढ़ती है। भोजन के साथ खाने से बुद्धि, बल व पुष्टि में वृद्धि होती है। भोजन के बाद सेवन करने से अन्नपान-संबंधी दोषों को व आहार से उत्पन्न अवांछित वात, पित्त और कफ को तुरंत नष्ट कर देती है।
सेंधा नमक के साथ खाने से कफजन्य़, मिश्री के साथ खाने से पित्तजन्य, घी के साथ खाने से वाय़ुजन्य तथा गुड़ के साथ खाने से समस्त व्याधियों को दूर करती है।
हरड़ के सरल प्रयोग
1. मस्तिष्क की दुर्बलताः 100 ग्राम हरड़ की छाल व 250 ग्राम धनिया को बारीक पीस लें। इसमें सममात्रा में पिसी हुई मिश्री मिलाकर रखें। 6-6 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम पानी के साथ लेने से मस्तिष्क की दुर्बलता दूर हो कर स्मरणशक्ति बढ़ती है। कब्ज दूर होकर आलस्य व सुस्ती मिटती है और सारा दिन चित्त प्रसन्न रहता है।
2. अनन्तवात (Trigeminal Neuralgia)- पीली हरड़ की छाल व धनिया 100-100 ग्राम तथा 50 ग्राम मिश्री को अलग-अलग पीस के मिलायें। यह चूर्ण सुबह-शाम 6-6 ग्राम जल के साथ लेने से अनन्तवात की पीड़ा, जो अचानक कहीं माथे पर या कनपटी के पास होने लगती है नष्ट हो जाती है। इसमें वातवर्धक पदार्थों का त्याग आवश्यक है।
3. 2 ग्राम हरड़ व 2 ग्राम सोंठ के काढ़े में 10 से 20 मि.ली. अरण्डी का तेल मिलाकर सुबह सूर्य़ोदय़ के बाद लेने से गठिया, सायटिका, मुँह का लकवा व हर्निया में खूब लाभ होता है।
4. हरड़ चूर्ण गुड़ के साथ निय़मित लेने से वातरक्त (Gout) जिसमें उँगलियाँ तथा हाथ-पैर के जोड़ों में सूजन व दर्द होता है, नष्ट हो जाता है। इसमें वायुशामक पदार्थों का सेवन आवश्यक है।
5. हरड़ वीर्यस्राव को रोकती है, अतः स्वप्नदोष में लाभदायी है।
6. उल्टियाँ शुरू होने पर हरड़ का चूर्ण शहद के साथ चाटें। इससे दोष (रोग के कण) गुदामार्ग से निकल जाते हैं व उलटी शीघ्र बंद हो जाती है।
7. हरड़ चूर्ण गर्म जल के साथ लेने से हिचकी बंद हो जाती है।
8. हरड़ चूर्ण मुनक्के (8 से 10) के साथ लेने से अम्लपित्त में राहत मिलती है।
9. आँख आने पर तथा गुहेरी (आँख की पलक पर होने वाली फुँसी) में पानी में हरड़ घिसकर नेत्रों की पलकों पर लेप करने से लाभ होता है।
10. शरीर के किसी भाग में फोड़ा होने पर गोमूत्र में हरड़ घिसकर लेप करने से फोड़ा पक कर फूट जाता है, चीरने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
11. 3-4 ग्राम हरड़ के छिलकों का काढ़ा शहद के साथ पीने से गले का दर्द, टान्सिल्स तथा कंठ के रोगों में लाभ होता है।
12. छोटी हरड़, सौंफ, अजवायन, मेथीदाना व काला नमक समभाग मिलाकर चूर्ण बनायें। 1 से 3 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम गर्म जल के साथ कुछ दिन लेने से कान का बहना बंद हो जाता है। इन दिनों में दही का सेवन न करें।
हरड़ चूर्ण की सामान्य मात्रा 1 से 3 ग्राम।
हरड़ रसायन योग
हरड़ व गुड़ का सम्मिश्रण त्रिदोषशामक व शरीर को शुद्ध करने वाला उत्तम रसायन योग है। इसके सेवन से अजीर्ण, अम्लपित्त, संग्रहणी, उदरशूल, अफरा, कब्ज आदि पेट के विकार दूर होते हैं। छाती व पेट में संचित कफ नष्ट होता है, जिसमें श्वास, खाँसी व गले के विविध रोगों में भी लाभ होता है। इसके निय़मित सेवन से बवासीर, आमवात, वातरक्त (Gout), कमरदर्द, जीर्णज्वर, किडनी के रोग, पाडुरोग व यकृत विकारों में लाभ होता है। यह हृदय के लिए बलदाय़क व श्रमहर है।
विधिः 100 ग्राम गुड़ में थोड़ा सा पानी मिला कर गाढ़ी चासनी बना लें। इसमें 100 ग्राम बड़ी हरड़ का चूर्ण मिलाकर 2-3 ग्राम की गोलियाँ बना लें। प्रतिदिन 1 गोली चूस कर अथवा पानी से लें। यदि मोटा शरीर है तो 4 ग्राम भी ले सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद अगस्त 2007, पृष्ठ 28, 29
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Varsha Ritu

वर्षा ऋतु विशेष
वर्षा ऋतु में प्राकृतिक स्थितिः
सूर्यः दक्षिणायण में होता है। मेघ, वायु, वर्षा से सूर्य का बल (तेज) कम हो जाता है।
चन्द्रः बल पूर्ण होता है।
वायुः नमी युक्त होती है।
जलः अम्ल रस युक्त होता है।
पृथ्वीः वर्षा के कारण पृथ्वी का ताप शांत होने से अम्ल, लवण, मधुर रसयुक्त, स्निग्ध आहार द्रव्यों व औषधियों की उत्पत्ति होने लगती है।
शारीरिक स्थितिः
बलः अत्यल्प।
जीवनीशक्तिः क्षीण।
जठराग्निः अत्यधिक दुर्बल।
दोषः वात का प्रकोप, पित्त का संशय।
हितकर आहारः
वर्षा ऋतु में वायु का शमन व जठराग्नि प्रदीप्त करने वाला आहार लेना चाहिए। इस हेतु भोजन में अदरक, लहसुन, नींबू, सोंठ, अजवायन, मेथी, जीरा, अल्प मात्रा में हींग, काली मिर्च, पीपरामूल का उपयोग करें।
जौ, गेहूँ, एक वर्ष पुराने चावल, परवल, सहिजन, जमीकंद, करेला, शिमला मिर्च, पुनर्नवा, मेथी, बथुआ, सुआ, पुदीना, बैंगन, लौकी (घीया), पेठा, तोरई आदि पचने में हलके व वायुशामक पदार्थ सेवनीय हैं।
मधु का सेवन इन दिनों में विशेष हितकर है। तिल तेल सभी गुणों से वायुशामक होने के कारण उत्तम है।
आँवला अथवा हरड़ का आचार, कोकम व लहसुन की चटनी, मूँग व कुलथी का सूप, भिगोये हुए मूँग, अदरक व गुड़ से बना अदरक पाक- ये सभी स्वाद, जठराग्नि व स्वास्थ्य बढ़ाने वाले हैं।
एक भाग पुनर्नवा में चौथाई भाग हरा धनिया, पुदीना व थोड़ी-सी काली मिर्च मिलाकर बनायी गयी चटनी भूखवर्धक व उत्तम पाचक है। यह यकृत, गुर्दे व हृदय के लिए हितकर है।
जलः
जल में 8-10 निर्मली के बीज मिला कर, उबाल कर ठंडा किया गया जल पीयें अथवा इन बीजों को कूट कर जल के पात्र में डाल कर रखें। इससे पानी निर्मल हो जाता है।
सोंठ, जीरा, नागरमोथ से सिद्ध जल उत्तम वात-पित शामक है। आकाश में जब तक बादल हों तब तक (सितम्बर महीने तक) इसका सेवन स्वास्थ्य में निश्चय ही सुधार लाता है।
वर्षा ऋतु में प्रातः 2-3 ग्राम हरड़ चूर्ण में चुटकी भर सेंधा नमक मिला कर ताज़े पानी के साथ लें।
पुनर्नवा अर्क व गोझरण अर्क का सेवन शरीर की शुद्धि व व्याधियों से सुरक्षा करने वाला है।
अहितकर आहारः
सूखे मेवे, मिठाई, दही, पनीर, मावा, रबड़ी, तले हुए, खमीरीकृत (इडली, खमण, ब्रेड आदि), बासी, पचने में भारी पदार्थ सर्वथा त्याज्य हैं।
चना, तुअर (अरहर), मटर, मसूर, राजमा, चौलाई, बाजरा, सेम, आलू, शकरकंद, पत्तागोभी, फूलगोभी, ग्वारफली, अरवी जैसे वायुवर्धक पदार्थ त्याज्य हैं।
हितकर विहारः
धूप, होम-हवन से वातावरण को शुद्ध रखें। वस्त्रों में नीम के सूखे पत्ते रखें। गोमूत्र से आश्रम में उपलब्ध गौसेवा फिनायल से घर को साफ-सुथरा रखें। नीम के सूखे पत्तों अथवा आश्रम द्वारा निर्मित गौ-चंदन धूपबत्ती से धूप करें। घर के आसपास अथवा बगीचे, नदी, तालाबों के किनारों पर तुलसी के पौधे लगाएँ। इससे बाह्य वातावरण, तन व मन शुद्ध एवं पवित्र होने में मदद मिलेगी।
तिल तेल अथवा वायुनाशक औषधियों से सिद्ध तेलों (दशमूल, महानारायण तेल आदि) से संपूर्ण शरीर की मालिश करें। कान में सरसों का तेल डालें, नाक में तिल तेल अथवा अणुतेल डालें, सिर तथा पैरों के तलुओं की मालिश करें। वर्षा ऋतु में बस्ति-उपक्रम (गुदा के द्वारा औषधियों को शरीर में प्रविष्ट करना) अत्यन्त लाभदायी है।
अहितकर विहारः
शीत जल से स्नान, नदी में स्नान, तैरना, ओस में अथवा आकाश बादलों से भरा हुआ हो तब खुले में छत आदि पर शयन, दिन में शयन, अधिक व्यायाम, अधिक परिश्रम, वाहनों में अधिक घूमना अथवा अधिक पैदल चलना निषिद्ध है।

वर्षा ऋतु के लिए वायुनाशक चूर्ण
छोटी हरड़ (बाल हर्र) को प्रथम दिन छाछ में भिगोकर रखें। दूसरे दिन छाया में सुखायें। इस प्रकार 3 से 6 बार भिगोकर सुखाने के बाद हरड़ का कपड़छान चूर्ण बनायें। 1 भाग हरड़ चूर्ण में चौथाई भाग अजवायन व आठवाँ भाग काला नमक मिला कर रखें।
लगभग 2 ग्राम मिश्रण भोजन के बाद गुनगुने पानी के साथ लें। इससे पाचन शक्ति बढ़ती है, पेट साफ होता है। मंदाग्नि, अजीर्ण, पेट में वायु, दर्द, डकार आदि का यह श्रेष्ठ इलाज है।
बहुगुणी, स्वादिष्टः अदरक पाक
छीलकर कद्दकस किया हुआ अदरक 500 ग्राम, पुराना गुड़ 500 ग्राम और गाय का घी 125 ग्राम लें। अदरक को घी में लाल होने तक भून लें। गुड़ की चासनी बनाकर उसमें भूना हुआ अदरक तथा इलायची, जायफल, जावित्री, लौंग, दालचीनी, काली मिर्च, नागकेसर प्रत्येक 6-6 ग्राम मिला कर सुरक्षित रख लें।
10 से 20 ग्राम पाक सुबह-शाम चबाकर खायें। यह उत्तम वात-पित्त-कफ नाशक, अग्निदीपक, पाचक, मलनिस्सारक, रूचिप्रद व कंठ के लिए हितकर है। दमा, खाँसी, जुकाम, स्वर-भंग, अरूचि आदि कफ-वात जन्य विकारों में व मंदाग्नि, कब्ज, भोजन के बाद पेट में भारीपन, अफरा अथवा दर्द तथा शरीर के किसी भी अंग में होने वाले दर्द में इस पाक के सेवन से बहुत लाभ होता है। शरीर में चुस्ती व स्फूर्ति भी आती है।
सावधानीः पित्त प्रकृतिवाले तथा पित्तजन्य व्याधियों से ग्रस्त व्यक्ति इस पाक का सेवन न करें।
दाँतों
के लिए
प्रयोग • रात को नींबू के रस में दातुन के अगले हिस्से को डुबो दें। सुबह उस दातुन से दाँत साफ करें तो मैले दाँत भी चमक जायेंगे।
• सप्ताह-पन्द्रह दिन में एक बार रात को सरसों का तेल और सेंधा नमक मिला के इससे दाँतों को रगड़ लें। इससे दाँत और मसूड़े मज़बूत बनेंगे। - परम पूज्य बापू जी

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वैद्यराज धनशंकर जी कहते हैं
रक्तशुद्धिकर, पित्तशामक
नीम अर्क
नीम के पत्तों से बना यह अर्क रक्त को शुद्ध करने वाली बहुमूल्य औषधि है। यह दाद, खाज, खुजली, कील मुहाँसे तथा पुराने त्वचा विकारों में अत्यन्त लाभदायक है। यह उत्तम कृमिनाशक, दाह व पित्तशामक है। पीलिया, पांडु, रक्तपित्त, अम्लपित्त, उलटी, प्रमेह, विसर्प (हरपिझ) व लीवर के रोगों को दूर करने वाला है। यह बालों को झड़ने से रोकता है। रक्तप्रदर, गर्भाशय शोथ, खूनी बवासीर आँखों के रोगों में भी लाभदायक है।
सेवन विधिः 10 से 30 मि.ली. अर्क (बालकों हेतु- 2 से 5 मि.ली.) समभाग पानी मिलाकर दिन में 2 बार।
विशेषः चर्मरोग में 5 लिटर पानी में 50 मि.ली. अर्क मिला कर स्नान करें। 15 दिन तक ही इसका नियमित सेवन करें। तत्पश्चात 4-5 दिन बंद करके पुनः ले सकते हैं।
शीतल, कफनाशक
वासा (अडूसा) अर्क
वासा अर्क संचित कफ को पतला कर बाहर निकाल देता है। अतः यह फुफ्फुस विकार, गले में सूजन, श्वास (दमा), खाँसी, कफजन्य, ज्वर तथा अन्य सभी प्रकार के कफ विकारों में क्षयरोग में बहुत लाभदायी है। यह रक्तगतपित्त को शांत करता है। नाक, आँख, मुँह, योनि, पेशाब आदि के द्वारा होने वाले रक्तस्राव की यह अद्वितिय औषधी है। खूनी बवासीर व खूनी दस्त भी लाभदायी है।
सेवन विधिः 20 से 40 मि.ली. अर्क (बालकों हेतु- 5 से 10 मि.ली.) दिन में 2 से 3 बार लें।
स्मृतिवर्धक, कैंसर-निवारक
तुलसी अर्क
धर्मशास्त्रों में तुलसी को अत्यन्त पवित्र तथा माता के समान माना गया है। तुलसी एक उत्कृष्ट रसायन है। आज के विज्ञानियों ने इसे एक अदभुत औषधि (Wonder Drug) कहा है।
लाभः यह कफजन्य ज्वर, विषमज्वर (विशेषतः मलेरिया), सर्दी-जुकाम, श्वास, खाँसी, अम्लपित्त, दस्त, उलटी, हिचकी, मुख की दुर्गन्ध, मंदाग्नि, कृमि, पेचिश में लाभदायी व हृदय के लिए हितकर है। यह रक्त में से अतिरिक्त स्निग्धांश को हटाकर रक्त को शुद्ध करता है। यह सौंदर्य, बल, ब्रह्मचर्य एवं स्मृति वर्धक व कीटाणु, त्रिदोष और विषनाशक है।
सेवनविधिः 10 से 20 मि.ली. अर्क में उतना ही पानी मिला कर खाली पेट ले सकते हैं। रविवार को न लें। तुलसी अर्क लेने से पूर्व व पश्चात डेढ़-दो घंटे तक दूध न लें।
शरीर के पुनः नयापन देने वाला
पुनर्नवा अर्क
पुनर्नवा शरीर के कोशों को नया जीवन प्रदान करने वाली श्रेष्ठ रसायन औषधि है। यह कोशिकाओं में से सूक्ष्म मलों को हटाकर संपूर्ण शरीर की शुद्धि करती है, जिससे किडनी, लीवर, हृदय आदि अंग-प्रत्यंगों की कार्यशीलता व मजबूती बढ़ती है तथा युवावस्था दीर्घकाल तक बनी रहती है।
लाभः यह अर्क किडनी की सूजन, मूत्राश्मरी (पथरी), उदररोग, सर्वांगशोथ (सूजन), हृदय दौर्बल्यता, श्वास, पीलिया, पांडु (रक्ताल्पता), जलोदर, बवासीर, भगंदर, हाथीपाँव, खाँसी, तथा लीवर के रोग व जोड़ों के दर्द में विशेष लाभदायी है। यह हृदयस्ध रक्तवाहियों को साफ कर हृदय को मजबूत बनाता है। आँखों हेतु भी हितकारी है। इसके सेवन से आँखों का तेज़ बढ़ता है। बाल घने व काले होते हैं। यह अनिद्रानाशक व पित्तशामक है।
सेवनविधिः 20 से 50 मि.ली. अर्क आधी कटोरी पानी में मिला कर दिन में एक या दो बार लें। इसके सेवन के बाद एक घंटे तक कुछ न लें।
केवल साधक परिवारों के लिए संत श्री आसारामजी आश्रमों व सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध
स्रोतः जुलाई 2007 ऋषि प्रसाद पृष्ठ 28, 29, 30
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Jamun

शरीर स्वास्थ्य
जामुन
वर्षा ऋतु के आरम्भ में अर्थात जून-जुलाई में जामुन के फल परिपक्व होते हैं। जामुन स्वादिष्ट फल तथा गुणकारी औषधी भी है। इसके फल, गुठली, छाल, पत्ते सभी औषधीय गुणों से सम्पन्न हैं। जामुन में कैल्शियम, फॉस्फोरस, व विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
यह कफ व पित्त का शमन करता है परंतु प्रबल वायुवर्धक है। इसके सेवन से पित्त के कारण होने वाली कंठ की शुष्कता, जलन व आंतरिक गर्मी दूर होती है। दाँत व मसूड़े मजबूत बनते हैं, दाँतों के कृमि नष्ट होते हैं। यह उत्तम कृमिनाशक व थकावट दूर करनेवाला है। अधिक सेवन से मलावरोध करता है।
यह यकृत (Liver) व तिल्ली (Spleen) की कार्यक्षमता बढ़ाता है जिससे पाचनशक्ति में वृद्धि होकर नवीन रक्त की उत्पत्ति में सहायता मिलती है।
जामुन के बीजों का उपयोग विशेषतः मधुमेह में किया जाता है। इनमें स्थित जम्बोलिन नामक ग्लुकोज़ स्टार्च के शर्करा में होने वाले विकृत रूपांतरण को रोकता है। छाया में सुखाये गये गुठलियों का चूर्ण छः-छः ग्राम दिन में दो-तीन बार लेना मधुमेह में लाभदायी है।
जामुन के कोमल पत्तों का रस पित्तशामक होने के कारण उलटी तथा रक्तपित्त में बहुत लाभदायी है।
महिलाओं के अत्यधिक मासिक स्राव में जामुन के कोमल पत्तों का 20 मि.ली। रस मिश्री में मिलाकर सुबह-शाम लेना चाहिए।
अधिक व बार-बार पेशाब होने पर जामुन-बीज का चूर्ण व पिसे हुए काले तिल समभाग मिलाकर 3-3 ग्राम मिश्रण दिन में 2 बार लें। अन्य औषधी-प्रयोगों से थके-हारे रूग्णों को भी इस प्रयोग से राहत मिलती है। बच्चों के बिस्तर में पेशाब करने की आदत में 2 ग्राम मिश्रण 2 बार पानी के साथ दें।
जामुन के पत्तों को जलाकर बनाए हुए भस्म का मंजन करने से मसूड़ों के रोग नष्ट होते हैं।
सावधानीः जामुन का सेवन भोजन के आधा एक घंटे बाद सीमित मात्रा में करना चाहिए। खाली पेट जामुन खाने से अफरा हो जाता है। सेंधा नमक, धनिया और काली मिर्च का चूर्ण छिड़क कर खाना अधिक हितावह है। जामुन के अधिक सेवन से फेफड़ों में कफ जमा हो जाता है।
स्मृतिवर्धक, कैंसर निवारक, त्रिदोषनाशक
तुलसी अर्क
धर्मशास्त्रों में तुलसी को अत्यंत पवित्र व माता के समान माना गया है। तुलसी एक उत्कृष्ट रसायन है। आज के विज्ञानियों ने इसे एक अदभुत औषधी (Wonder Drug) कहा है।
मात्राः 10 से 20 मि.ली. अर्क में उतना ही पानी मिलाकर खाली पेट ले सकते हैं। रविवार को न लें। तुलसी अर्क लेने के पूर्व व बाद के डेढ़-दो घंटे तक दूध न लें।
लाभः यह सर्दी जुकाम, खाँसी, एसिडिटी, ज्वर, दस्त, उलटी, हिचकी, मुख की दुर्गंध, मंदाग्नि, पेचिस में लाभदायी व हृदय के लिए हितकर है। यह रक्त में से अतिरिक्त स्निग्धांश को हटाकर रक्त को शुद्ध करता है। यह सौंदर्य, बल, ब्रह्मचर्य एवं स्मृति वर्धक व कीटाणु, त्रिदोष और विष नाशक है।
शरीर को पुनः नयापन देने वाला
पुनर्नवा अर्क
पुनर्नवा शरीर के कोशों को नया जीवन प्रदान करने वाली श्रेष्ठ रसायन औषधी है। यह कोशिकाओं में से सूक्षम मलों को हटाकर संपूर्ण शरीर की शुद्धि करती है, जिससे किडनी, लीवर, हृदय आदि अंग-प्रत्यंग की कार्यशीलता व मजबूती बढ़ती है तथा युवावस्था दीर्घकाल तक बनी रहती है।
लाभः यह अर्क किडनी व लीवर के रोग, उदररोग, सर्वाँगशोथ (सूजन), श्वास, पीलिया, जलोदर (Ascitis), पांडु (रक्ताल्पता), बवासीर, भगंदर, हाथीपाँव, खाँसी तथा जोड़ों के दर्द में विशेष लाभदायी है। यह हृदयस्थ रक्तवाहिनियों को साफ कर हृदय को मजबूत बनाता है। आँखों के लिए भी हितकारी है।
मात्राः 20 से 50 मि.ली. अर्क आधी कटोरी पानी में मिलाकर दिन में एक या दो बार लें। इसके सेवन के बाद एक घंटे तक कुछ न लें।
केवल साधक परिवार के लिए संत श्री आसारामजी आश्रमों व सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध।
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Amrakalp

शरीर स्वास्थ्य
आम्रकल्पः एक मधुर कल्प
नमकीन, चरपरे, तले हुए व चीनी से बने पदार्थों की अधिकता वाला आज का असंतुलित भोजन पाचनशक्ति को बिगाड़ रहा है, साथ ही सारे रक्त में अम्लता बढ़ाकर अनेक रोग पैदा कर रहा है। सारे अप्राकृतिक खाद्यों पिंड छुड़ा के उपर्युक्त दोषों को दूर कर कायाकल्प करने वाला प्रयोग है आम्रकल्प (आम का कल्प)। माँ पार्वती जी का प्रिय यह स्वर्गीय फल भगवान शिवजी ने धरती पर प्रकट किया।
आम का पका फल वीर्य, बल, जठराग्नि, शुक्र व कफ वर्धक, वातनाशक, मधुर, स्निग्ध, शीतल, हृदय के लिये हितकर, वर्ण निखारने वाला होता है। इसमें कार्बोहाईड्रेट, प्रोटीन, वसा, क्षार, कैल्शियम, फास्फोरस, लौह एवं विटामिन ए, बी, सी व डी पाये जाते हैं। गाय का दूध अत्यन्त स्वादिष्ट, स्निग्ध, मधुर, शीतल, रूचिकर तथा रक्त, बल वीर्य, स्मृति, बुद्धि व आयुष्य वर्धक एवं रोगनाशक है। आम के प्रोटीन-बाहुल्य व दूध के स्निग्धता-बाहुल्य का सुमेल शरीर के लिए अमृततुल्य प्रभाव दिखाता है।
कल्प के लिए आमः जिस आम में रेशा बहुत कम, गूदा अधिक व जिसका स्वाद खूब मीठा होता है वह उत्तम है। कल्प के लिए उत्तम जाति के पतले रसवाले देशी आम लें, खट्टे आम हानि करते हैं। पतले रस वाले आम न मिलें तो गाढ़े रस वाले ले सकते हैं।
प्रयोग विधिः एक दिन उपवास कर फिर कल्प शुरू करें। उपवास के दिन केवल गुनगुना पानी लें। आमों को 4 घंटे जल में भिगो दें (आम फ्रिज में न रखें), फिर अच्छी तरह धोकर उसके मुँह के ऊपर का हिस्सा अलग करके वहाँ से दो-चार बूँद रस निकाल दें। फिर धीरे-धीरे चूसें। रस को लार में खूब घुला-घुलाकर लेना चाहिए। आम का रस निकाल कर उपयोग में लाने पर वह भारी हो जाता है, अतः चूसकर खाना ही उत्तम है।
कल्प के प्रथम तीन-चार दिन केवल आमरस व पानी पर ही रहें, जिससे आँतों में पुराने मल की सड़न से पैदा हुए कृमियों का नाश हो जाएगा एवं मित्र कृमियों की संख्या बढ़ेगी, फलतः पाचन व निष्कासन क्रिया दुरूस्त होगी एवं यदि वायु होती है तो शांत होगी।
सामान्य पाचनशक्ति वाले व्यक्ति दिन में दो बार आम का रस व दो बार दूध ले सकते हैं। आम उतनी ही मात्रा में लें कि दुग्धाहार के समय भूख कसकर लगे। शुरूआत में एक बार में 250 मि.ली. दूध पर्याप्त है। आम एवं दूध की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ायें। आम व दूध के सेवन में 2-3 घंटे का अंतर रखें तथा सूर्यास्त के बाद आम का सेवन न करें। दूध को चुसकी लेते हुए पीयें, इससे दूध और भी सुपाच्य हो जाएगा।
इस प्रयोग के दौरान अन्य आहार नहीं लेना है। प्यास लगने पर पानी ज़रूर पीयें। यदि वायु या कफ का जोर दिखाई पड़े तो आम-सेवन से पूर्व सेंधा नमक के साथ अदरक के टुकड़े खायें। इस प्रकार 40 दिन तक केवल आम और दूध पर रहें। कल्प का विशेष लाभ लेना हो तो 40 दिन के बाद एक-दो माह तक दिन में एक बार सुपाच्य भोजन और सुबह आम व रात को दूध को सेवन करें।
(जो 2-3 हफ्ते से ज़्यादा समय तक कल्प न कर पायें, वे दोपहर को मूँग की दाल व रोटी तथा सुबह आम एवं रात को दूध का सेवन कर सकते हैं।)
लाभः आम्रकल्प से पाचनक्रिया शुद्ध होकर पुराने कब्ज, मंदाग्नि, अम्लपित्त, संग्रहणी, अरूचि, क्षय, यकृतवृद्धि, स्नायु व धातु दौर्बल्य, वायु, अनिद्रा, रक्तचाप की कमी या अधिकता तथा हृदय रोग में बहुत लाभ पहुँचता है।
आम का विटामिन ए बाहर के विषों से शरीर की रक्षा करता है व विटामिन सी चर्मरोगों को खत्म करता है। इस कल्प से रक्त, वीर्य, बल व कांति की वृद्धि होती है।
स्वास्थ्य व स्वादप्रद अमावट (अमरस)- पके आम के रस को निकाल के कपड़े पर पसार कर धूप में सुखायें। जब सूख जाय तब उसी पर पुनः रस डालें व सुखायें। इससे जो मोटी परत तैयार होती है उसी को अमावट कहते हैं। यह प्यास, वमन, वात व पित्त का नाशक, सारक, रोचक तथा सुपाच्य होता है।

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Sharir Swasthya 2

शरीर स्वास्थ्य
ग्रीष्मजन्य व्याधियों के उपाय
1. सर्वांगदाहः शतावरी चूर्ण (2 से 3 ग्राम) अथवा शतावरी कल्प (1 चम्मच) दूध में मिला कर सुबह खाली पेट लें। आहार में दूध चावल अथवा दूध रोटी लें। आश्रम द्वारा निर्मित रसायन चूर्ण तथा आंवला चूर्ण का प्रयोग करें। दोपहर के समय गुलकन्द चबा-चबा कर खाएँ। इससे प्यास, जलन, घबराहट आदि लक्षण दूर हो जाते हैं।
शीत, मधुर, पित्त व दाहशामक खरबूजे का सेवन भी बहुत ही लाभदायी है किंतु दृष्टि व शुक्र धातु का क्षय करने वाले तरबूज का सेवन थोड़ी सावधानी से अल्प मात्रा में ही करना अच्छा है।
2. आँखों की जलनः ऱूई का फाहा गुलाबजल में भिगोकर आँखों पर रखें।
त्रिफला चूर्ण (3 ग्राम) पानी में भिगोकर रखें। 2 घंटे बाद कपड़े से छान कर उस पानी से आँखों में छींटे मारें। बचे हुए त्रिफला चूर्ण का पानी के साथ सेवन करें।
3. नकसीर फूटनाः गर्मी के कारण नाक से रक्त आने पर ताजा हरा धनिया पीसकर सिर पर लेप करने से तथा इसका 2-4 बूँद रस नाक में डालने से शीघ्र लाभ होता है। धनिया की जगह दूर्वा का उपयोग विशेष लाभदायी है।
4. लू लगनाः थोड़े-थोड़े समय पर गुड़ व भूना हुआ जीरा मिश्रित पानी पीयें। आम का पना, इमली अथवा कोकम का शरबत पीयें। प्याज व पुदीने का उपयोग भी लाभदाय़ी है।
लू व गर्मी से बचने के लिए रोजाना शहतूत खाएँ। इससे पेट तथा पेशाब की जलन दूर होती है। नित्य शहतूत खाने से मस्तिषक को ताकत मिलती है।
5. पैरों का फटनाः अत्यधिक गर्मी से पैरों की त्वचा फटने लगती है। उस पर अरंडी का तेल या घी लगायें। पैरों के तलुवों में इसे लगाकर काँसे की कटोरी से घिसने से शरीरांतर्गत गर्मी कम हो जाती है तथा आँखों को भी आराम मिलता है। पैरों के तलुवों से आँखों का सीधा संबंध है। क्योंकि पैरों के तलुवों से निकलने वाली दो नसें आँखों तक पहुँचती हैं, जिससे पैरों में जलन होने पर आँखों में भी जलन होने लगती है। इसलिए गर्मियों में प्लास्टिक अथवा रबड़ की चप्पल नहीं पहननी चाहिए।
6. पेशाब में जलनः तुलसी की जड़ के पास वाली मिट्टी छानकर उसे पानी में मिलाएं। सूती वस्त्र पर वह मिट्टी लगा कर नाभि के नीचे पेड़ू पर रखें। पट्टी सूखने पर बदल दें। गीली मिट्टी की ठंडक पेट की गर्मी को खींच लेती है। यह प्रयोग कुछ समय तक लगातार करने से पेशाब की जलन पूर्णतः मिट जाती है। इसके साथ 100 मि.ली. दूध में 3 से 5 ग्राम शतावरी चूर्ण तथा थोड़ी सी मिश्री मिलाकर 1 से 2 बार लें।
7. शीतला (चिकन पोक्स)- गर्मियों में बच्चों को होने वाली इस बीमारी में ज्वर, सर्दी व खाँसी के साथ पूरे शरीर पर राई जैसी छोटी-छोटी फुंसियाँ निकल आती हैं।
शीतला होने की संभावना दिखायी देने पर शीघ्र ही पर्पटादी क्वाथ
(परिपाठादि काढ़ा) का उपयोग करें। यह आयुर्वैदिक दवाईयों की दुकान से सहज मिल जाता है। इससे व्याधि की तीव्रता कम हो जाती है।
शीतला निकलने पर जब तक बुखार हो, तब तक बच्चे को नहलाना नहीं चाहिए। आहार में मूँग का पानी अथवा चावल का पानी दें। सब्जी, रोटी, दूध, फल आदि बिल्कुल न दें। इससे व्याधि गम्भीर रूप धारण कर सकती है। फुँसियाँ सूखने पर नीम के पत्ते पानी में उबाल कर उस पानी से बच्चे को नहलायें तथा वचा चूर्ण शरीर पर मल कर ही कपड़े पहनायें।

शरीर स्वास्थ्य
सुलभ एक्युप्रेशर चिकित्सा
प्रसूति की पीड़ा कम करने हेतुः

दोनों पैरों में टखनों के ऊपर अंदर की तरफ चित्र में दर्शाये गये बिन्दुओं पर भारपूर्वक दो मिनट तक दबाव दें। फिर थो़ड़ा रूक कर पुनः दबाव दें। इस प्रकार बालक का जन्म होने तक रूक-रूक कर दबाव देते रहें। इससे प्रसूति की पीड़ा कम होगी।
नकसीर फूटना, बेहोश होना तथा लू एवं गर्मी लगने परः

उँगलियों के सिरे पर तथा चित्रानुसार नाक के नीचे तथा होंठ के ऊपर मध्य बिन्दु पर जोर से दबाव दें और चन्द्रभेदी प्राणायाम करें।
चन्द्रभेदी प्राणायाम की विधिः प्रातः पद्मासन अथवा सुखासन में बैठकर दायें नथुने को बंद करें और बायें नथुने से धीरे-धीरे अधिक-से-अधिक गहरी श्वास भरें। श्वास लेते समय आवाज़ न हो इसका ख्याल रखें। अब अपनी क्षमता के अनुसार श्वास भीतर ही रोक रखें। जब श्वास न रोक सकें तब दायें नथुने से धीरे-धीरे बाहर छोड़ें। झटके से न छोड़ें। इस प्रकार 3 से 5 प्राणायाम करें।
सावधानीः कफ प्रकृतिवालों व निम्न रक्तचापवालों के लिए यह प्राणायाम निषिद्ध है। अतः वे केवल उपरोक्त बिन्दुओं पर दबाव दें।
दवाओं के कुप्रभावों से बचने हेतुः

एल.एस.डी. (मारीजुआना), नींद की गोलियाँ, अफीम, गाँजा आदि के सेवन से हुआ कुप्रभाव दूर करने के लिए चित्रानुसार दोनों कानों के ऊपरी भाग से तीन ऊपर के बिंदु पर भारपूर्वक दो-तीन मिनट तक दबाव दें, दवाओं का दुष्प्रभाव दूर हो जाएगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद अप्रैल 2007, पृष्ठ 30, 31.
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Sharir Swasthya

शरीर स्वास्थ्य
स्वास्थय के लिए हितकर-अहितकर
प्राचीन काल में भगवान पुनर्वसु आत्रेय ने मनुष्यों के लिए स्वभाव से ही हितकर व अहितकर बातों का वर्णन करते हुए भारद्वाज, हिरण्याक्ष, कांकायन आदि महर्षियों से कहाः
हितकर भाव
आरोग्यकर भावों में समय पर भोजन, सुखपूर्वक पचनेवालों में एक समय भोजन, आयुवर्धन में ब्रह्मचर्य पालन, शरीर की पुष्टि में मन की शान्ति, निद्रा लाने वालों में शरीर का पुष्ट होना तथा भैंस का दूध, थकावट दूर करने में स्नान व शरीर में दृढ़ता उत्पन्न करने वालों में व्यायाम सर्वश्रेष्ठ है।
वात और पित्त को शांत करने वालों में घी, कफ व पित्त को शांत करने वालों में शहद तथा वात और कफ को शांत करने में तिल का तेल श्रेष्ठ है।
वायुशामक व बलवर्धक पदार्थों में बला, जठराग्नि को प्रदीप्त कर पेट की वायु को शांत करने वालों में पीपरामूल, दोषों को बाहर निकालने वाले, अग्निदीपक व वायुनिस्सारक पदार्थों में हींग, कृमिनाशकों में वायविडंग, मूत्रविकारों में गोखरू, दाह दूर करने वालों में चंदन का लेप, संग्रहणी व अर्श (बवासीर) को शांत करने में प्रतिदिन तक्र (मट्ठा) सेवन सर्वश्रेष्ठ है।

अहितकर भाव
रोग उत्पादक कारणों में मल-मूत्र आदि के वेगों को रोकना, आयु घटाने में अति मैथुन, जीवनशक्ति घटाने वालों में बल से अधिक कार्य करना, बुद्धि स्मृति व धैर्य को नष्ट करने में अजीर्ण भोजन (पहले सेवन किये हुए आहार के ठीक से पचने से पूर्व ही पुनः अन्न सेवन करना), आम दोष उत्पन्न करने में अधिक भोजन तथा रोगों को बढ़ाने वाले कारणों में विषाद (दुःख) प्रधान है।
शरीर को सुखा देने वालों में शोक, पुंस्त्वशक्ति नष्ठ करने वालों में क्षार, शरीर के स्रोतों में अवरोध उत्पन्न करने वाले पदार्थों में मंदक दही (पूर्ण रूप से न जमा हुआ दही) तथा वायु उत्पन्न करने वालों में जामुन मुख्यतम है।
स्वास्थ्यनाशक काल में शरद् ऋतु, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक जल में वर्षा ऋतु की नदी का जल, वायु में पश्चिम दिशा की हवा, ग्रीष्म ऋतु की धूप व भूमि में आनूप देश (जहाँ वृक्ष और वर्षा अधिक हो, धूप कम हो, क्वचित सूर्य-दर्शन भी दुर्लभ हों) मुख्यतम हैं।
स्वास्थ्य व दीर्घायुष्य की कामना करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि हितकर पदार्थों के सेवन के साथ अहितकर पदार्थों का त्याग करे।
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम्, यज्जःपुरूषीयाध्याय 25)

सुलभ प्रसव के लिएः मूलबंध
सगर्भावस्था में प्रसवकाल तक मूलबंध का नियमित अभ्यास करने से प्रसव सुलभता से हो जाता है। मूलबंध माना गुदा (मलद्वार) को सिकोड़ कर रखना जैसे घोड़ा संकोचन करता है। इससे योनि की पेशियों में लचीलापन बना रहता है, जिससे पीड़ारहित प्रसव में सहायता मिलती है। प्रसूति के बाद भी माताओं को मूलबंध एवं अश्विनी मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। अश्विनी मुद्रा अर्थात् जैसे घोड़ा लीद छोड़ते समय गुदा का आकुंचन-प्रसरण करता है, वैसे गुदाद्वार का आकुंचन-प्रसरण करना। लेटे-लेटे 50-60 बार यह मुद्रा करने से वात-पित्त-कफ इन त्रिदोषों का शमन होता है, भूख खुल कर लगती है तथा सगर्भावस्था की अवधि में तने हुए स्नायुओं को पुनर्स्वास्थ्य पाने में सहायता मिलती है। श्वेत प्रदर (ल्यूकोरिया), योनिभ्रंश (प्रोलॅप्स) व अनियंत्रित मूत्रप्रवृत्ति के उपचार में मूलबंध का अभ्यास अत्युत्तम सिद्ध हुआ है।


स्रोतः ऋषि प्रसाद मार्च 2007, पृष्ठ 30
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Swasthya Sanjivani

स्वास्थ्य संजीवनी
वसन्त ऋतु में ध्यान दें।
• वसन्त ऋतु में भारी, अम्लीय, स्निग्ध और मधुर आहार का सेवन व दिन में शयन वर्जित है।
• वसन्ते भ्रमणे पथ। वसन्त ऋतु में खूब पैदल चलना चाहिए। व्यायाम कसरत विशेष रूप से करना चाहिए।
• इन दिनों में तेल-मालिश, उबटन लगाना व नाक में तेल(नस्य) डालना विशेष लाभदायी है। नस्य व मालिश के लिए तिल तेल सर्वोत्तम है।
• अन्य ऋतुओं की अपेक्षा वसन्त ऋतु में गौमूत्र का सेवन विशेष लाभदाय़ी है।
• सुबह 3 ग्राम हरड़ चूर्ण में शहद मिलाकर लेने से भूख खुलकर लगेगी। कफ का भी शमन हो जाएगा।
• इन दिनों में हलके, रूखे, कड़वे, कसैले पदार्थ, लोहासव, अश्वगंधारिष्ट अथवा दशमूलारिष्ट का सेवन हितकर है।
• हरड़ चूर्ण को गौमूत्र में धीमी आँच पर सेंक लें। जलीय भाग जल जाने पर उतार लें। इसे गौमूत्र हरितकी कहते हैं। रात को 3 ग्राम चूर्ण गुनगुने पानी के साथ लें। इससे गौमूत्र व हरड़ दोनों के गुणों का लाभ मिलता है।
कड़वा रसः स्वास्थ्य-रक्षक उपहार
वसन्त ऋतु में कड़वे रस के सेवन का विशेष लाभदाय़ी है। इस ऋतु में नीम की 15-20 कोंपलें व तुलसी की 5-10 कोमल पत्तियाँ 2-3 काली मिर्च के साथ चबा-चबाकर खानी चाहिए। ब्रह्मलीन स्वामी श्री लीलाशाह जी यह प्रयोग करते थे। पूज्य बापू जी कभी-कभी यह प्रयोग करते हैं। इसे 15-20 दिन करने से वर्ष भर चर्म रोग, रक्तविकार और ज्वर आदि रोगों से रक्षा करने की प्रतिरोधक शक्ति पैदा होती है। इसके अलावा नीम के फूलों का रस 7 से 15 दिन तक पीने से त्वचा के रोग और मलेरिया जैसे ज्वर से भी बचाव होता है। इस ऋतु में सुबह खाली पेट हरड़ का चूर्ण शहद के साथ सेवन करने से लाभ होता है।
19 मार्च को चैत्री नूतन वर्षारंभ अर्थात् गुड़ी पड़वा (वर्ष प्रतिपदा) है। इस दिन स्वास्थ्य-सुरक्षा तथा चंचल मन की स्थिरता के लिए नीम की पत्तियों को मिश्री, काली मिर्च, अजवायन आदि के साथ प्रसाद के रूप में लेने का विधान है। आजकल अलग-अलग प्रकार के बुखार, मलेरिया, टायफायड, आंतों के रोग, मधुमेह, मेदवृद्धि, कोलस्टेरोल का बढ़ना, रक्तचाप जैसी बीमारियाँ बढ़ गयी हैं। इसका प्रमुख कारण भोजन में कड़वे रस का अभाव है। भगवान आत्रेय ने चरक संहिता में कहा हैः
तिक्तो रसः स्वमरोचिष्णुरप्यरोचकघ्नो विषघ्नः कृमिघ्नो मूर्च्छादाहकण्डू कुष्ठतृष्णाप्रशमनस्त्वङ् मांसयोः स्थिलीकरणो ज्वरघ्नोदीपनः पाचनः स्तन्यशोधनो लेखनः क्लेदमेदोवसामज्जलसीकापूयसवेदमूत्रपुरीषपित्तश्लेष्मोशोषणो रूक्षः शीतो लघुश्च।
कड़वा रस स्वयं अरूचिकर होता है किंतु सेवन करने पर अरूचि को दूर करता है। यह शरीर के विष व कृमि को नष्ट करता है, मूर्च्छा (बेहोशी), जलन, खुजली, कोढ़ और प्यास को नष्ट करता है, चमड़े व मांसपेशियों में स्थिरता उत्पन्न करता है (उनकी शिथिलता को नष्ट करता है)। यह ज्वरशामक, अग्निदीपक, आहारपाचक, दुग्ध का शोधक और लेखन (स्थूलता घटाने वाला) है। शरीर का क्लेद, मेद, चर्बी, मज्जा, लसीका (lymph), पीब, पसीना, मल, मूत्र, पित्त और कफ को सुखाता है। इसके गुण रूक्ष, शीत और लघु हैं।


(सूत्रस्थान, अध्याय-26)
स्रोतः ऋषि प्रसाद फरवरी 2007, पृष्ठ संख्या 29.
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Yoga Amrit



योगामृत


पेट के दोष, बहुत सारे रोग मिटाए और पाचन सबल बनाए-त्रिदोषनाशक स्थलबस्ति

भूमि पर कंबल बिछा कर लेट जाएँ, फिर गुदा को सिकोड़ें तथा फैलाएँ।
घेरंड संहिता की कुछ टीकाओं के अनुसार स्थलबस्ति में पादपश्चिमोत्तानासन की स्थिति में अश्विनी मुद्रा की जाती है। यह प्रयोग भी बहुत सरल है। इसमें पैरों को फैला कर उनके बीच 12 इंच का अंतर रखें। आगे उतना ही झुकें जितने में आप अपने पैरों की उँगलियों को पकड़ सकें। इस स्थिति में अश्विनी मुद्रा का अभ्यास करें।
श्वासक्रियाः श्वास लेते समय गुदा द्वार का आंकुचन अर्थात ऊपर की ओर खींचा जाता है और श्वास छोड़ते समय प्रसरण किया जाता है।
लाभः स्थलबस्ति के अभ्यास से पेट के दोष, आम व वातजन्य रोगों का शमन और जठराग्नि का वर्धन होता है। इससे पित्त तथा कफ के दोषों का नाश होता है और पेट निरोग बनता है। यह सभी प्रकार के रोगों से रक्षा करती है। व्याधि उत्पन्न होने पर उसे जड़ से हटाने में भी सहायक होती है।
अश्विनी मुद्रा से मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्र विकसित होते हैं। इससे बुद्धि व प्रभावशाली व्यक्तित्व के विकास में बड़ा सहयोग मिलता है।
स्थलबस्ति से शरीर के साथ मानसिक विकारों पर भी नियंत्रण होता है। ब्रह्मचर्य पालन में सहायता मिलती है। साधकों को साधना में शीघ्र उन्नत होने हेतु भी यह खूब सहायक है।
सावधानीः उच्च रक्तचाप, हर्निया व पेट के गंभीर रोगों में यह प्रयोग वर्जित है।


एक्यप्रेशर के दो उपयोगी बिन्दु


सूर्यबिन्दुः सूर्यबिन्दु छाती के पर्दे (डायफ्राम) के नीचे आये हुए समस्त अवयवों का संचालन करता है। नाभि खिसक जाने पर अथवा डायफ्राम के नीचे के किसी भी अवयव के ठीक से कार्य न करने पर सूर्यबिन्दु पर दबाव डालना चाहिए।
शक्तिबिन्दुः जब थकान हो या रात्रि को नींद न आयी हो तब इस बिन्दु को दबाने से वहाँ दुखेगा। उस समय वहाँ दबाव डालकर उपचार करें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद जनवरी 2007, पृष्ठ संख्या 28

PariPrashnen

अंकः (3-7)
परिप्रश्नेन....
(पूज्य बापू के श्रीचरणों में प्रश्नोत्तरी)
प्रः ईश्वर को कैसे पाया जाये ?
उः हरेक साधक की अपनी क्षमता होती है। सबकी अपनी-अपनी योग्यता होती है। उसके कुल का, संप्रदाय का जो भी मंत्र इत्यादि हो उसका जप-तप करता रहे, ठीक है। साथ ही साथ किसी ज्ञानवान महापुरूष का सत्संग सुनता रहे। बुद्ध पुरूष के सत्संग के द्वारा साधक का अधिकार बढ़ता जाएगा। साधक की योग्यता देखकर यदि ज्ञानवान मार्ग बताएं तो उस मार्ग पर चलने से साधक जल्दी अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है।
प्रथम भक्ति संतन कर संगा।
दूसर रति मम कथा प्रसंगा।।
प्रः आत्मा और परमात्मा का मिलन कैसे होता है?
उः सच पूछो तो आत्मा परमात्मा ये एक ही चीज़ के दो नाम हैं। जैसे घटाकाश और महाकाश। घड़े में आया हुआ आकाश और महाकाश दोनों एक हैं। घड़े का आकाश महाकाश से कैसे मिले? घड़े के आकाश को पता चल जाय कि मैं ही महाकाश हूँ तो महाकाश से मिल गया। तरंग को पता चल जाये कि मैं जल हूँ तो वह जल से मिल गया। आत्मा को पता चल जाये कि मैं आत्मा हूँ.... परमात्मा से अभिन्न हूँ तो वह परमात्मा से मिला हुआ ही है।
प्रः स्वामी जी! आत्मा के दुःख, शोक स्पर्श नहीं कर सकते। हम देह नहीं, आत्मा हैं। फिर भी हमको दुःख तो होता है?
उः हाँ, यह कइयों की समस्या है। लोग मेरे पास आते हैं और बोलते हैं- बापू! फलाना आदमी ऐसा-ऐसा बोलता है.... यह सुनकर मेरी आत्मा जलती है। आत्मा कभी जलती नहीं। यह तो मनुभाई (मन) को शोक होता है। हर्ष-शोक मन को होता है। राग-द्वेष मति के धर्म हैं। भूख-प्यास प्राणों को लगती है। प्राण चलते हैं इसलिए भूख-प्यास लगती है। काला-गोरा होना यह चमड़ी के धर्म हैं। मोटा-पतला होना यह देह का धर्म है। तुम अपने को देह मान लेते हो कि मैं मोटा हुआ, मैं गोरा हुआ।
जो कुछ होता है वह इन्द्रियों में मन में, बुद्धि में, देह में होता है। आत्मा इन सबसे अलग है। मन में अच्छा भाव आया और गया, शरीर और अंतःकरण द्वारा अच्छा कार्य हुआ, बुरा कार्य हुआ। इन सबको जो देखने वाला है वह आत्मा है। सूक्ष्म दृष्टि से इसका अनुभव किया जाता है। अनुभव करने वाला फिर अलग नहीं रहता, वही हो जाता है।
सो जाने जासू देहू जनाहीं।
जानत तुम ही तुम ही हो जाई।।
वर्षः 14
अंकः 133
जनवरी 2004
विद्यार्थी-प्रश्नोत्तरी
संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से
प्रः गुरू जी! धर्म के लक्ष्ण क्या हैं?
उः धैर्य़, क्षमा, संयम, चोरी न करना, पवित्रता, सत्य, क्रोध न करना, निर्भयता- ये सब धर्म के लक्षण हैं।
प्रः धर्म क्या है?
उः बेटा! जो परमेश्वर सारे विश्व को धारण कर रहा है, उसको जानने की रीति का नाम है धर्म। यह दो प्रकार का होता है।
मानवीय धर्म। 2. सामाजिक धर्म।
मानवीय धर्म है अहिंसा। एक-दूसरे को मारना नहीं चाहिए। किसी प्राणी अथवा
जीव-जन्तु को परेशान नहीं करना चाहिए। किसी को कटु वचन के द्वारा दुःख नहीं पहुंचाना चाहिए। दूसरा है सामाजिक धर्म। बन सके उतना दूसरों की सेवा करना यह सामाजिक धर्म है।
प्रः गुरू जी! विद्यार्थी का धर्म क्या है?
उः विद्यार्थी का धर्म है विद्या सीखना। माता-पिता को प्रणाम करके उनके आशीर्वाद लेना। ब्रह्मचर्य का पालन करना। बाल्यकाल में जो सुसस्कार मिलेंगे, आगे चल कर वे ही जीवन में काम आयेंगे। विद्यार्थी काल बड़ा कीमती काल है। इसमें अगर बुरी संगत, बुरी आदतें लग गयीं, बुरे कर्म हो गये तो जीवन लाचार, पराधीन, पराश्रित, दुःखी और रूग्ण हो जाएगा। अपने लिए, परिवार, समाज तथा देश के लिए भी बोझा हो जाएगा।
विद्यार्थी को चाहिए कि वह संयमी रहे, व्यायाम, आसन आदि करके स्वस्थ रहे और जप-ध्यान करके अपनी सुषुप्त चेतना को जाग्रत करे। इस प्रकार जीवन का सर्वांगीण विकास करे।
विद्यार्थी कभी नकारात्मक न सोचे, पलायनवादिता के या हलके विचार न करे। अनुत्तीण हो जाए तब भी भागने के या आत्महत्या के विचार न करे, फिर से पुरूषार्थ करे तो अवश्य सफल होगा। प्रयत्न करो, प्रयत्न करो, अवश्य सफलता प्राप्त करोगे। वह कौन सा उकदा है जो हो नहीं सकता?
तेरा जी न चाहे तो हो नहीं सकता।
एक छोटा सा कीड़ा पत्थर में घर करे।
तो इन्सान क्या दिले दिलबर में घर न करे।।

प्रः गुरूजी! ईश्वर कैसा है?
उः कोई कैसा है। यह उससे बड़ा ही बता सकता है। ईश्वर से बड़ा कोई नहीं है, इसलिए ईश्वर कैसा है - यह बताना मुश्किल है। किन्तु ईश्वर है यह ज़रूर बता सकते हैं।
मत करो वर्णन हर बेअंत हैं....
उसका कोई अंत नहीं है। ईश्वर कैसा है, इसका वर्णन कोई नहीं कर सकता। जैसे चींटी पृथ्वी का माप नहीं बता सकती किंतु वह पृथ्वी पर है इतना तो मान सकती है, वैसे ही परमात्मा कैसा है यह बताना संभव नहीं है किंतु परमात्मा का अस्तित्व है यह प्रत्येक व्यक्ति मान सकता है।
जैसे घड़े में पानी डालो तो वह घड़े का आकार ले लेता है, लोटे में डालो तो लोटे का और कटोरी में डालो तो कटोरी का, वैसे ही जिसका हृदय जैसा होता है, परमात्मा उसमें वैसा ही भासता है। अरे! वास्तव में परमात्मा ही सब कुछ है।
जैसे विद्युत-प्रवाह बल्ब में प्रकाश, फ्रिज में ठंडक और हीटर में गर्मी में पैदा करता हुआ दिखता है लेकिन है ऊर्जामात्र- एक स्वरूप, वैसे ही भगवान की सत्ता दुष्ट स्वभाव वाले को कठोर दिखती है और साधु स्वभाव वाले को दया, करूणा, कृपा करने वाली दिखती है लेकिन है सत्तामात्र- एक स्वरूप।
प्रः भगवान साकार हैं कि निराकार?
उः भगवान साकार भी हैं और निराकार भी। उन्होंने साकार को भी बनाया है और निराकार को भी, जैसे - पक्षी साकार हैं और आकाश निराकार। अगर भगवान निराकार नहीं होते तो बुद्धि में निराकार की कल्पना कैसे आती और अगर साकार नहीं होते तो ये साकार शरीर कैसे बनते?
परमात्मा माता में भी है और पिता में भी, मित्र में भी है एवं शत्रु की गहराई में भी। जैसे विद्युत-प्रवाह कूलर के माध्यम से ठंडक देता है और हीटर के माध्यम से गर्मी देता है, वैसे ही प्यार की वृत्ति से मित्र, मित्र दिखता है और वैर की वृत्ति से शत्रु, शत्रु। किंतु दोनों की गहराई में है एक परमात्मा ही।
प्रः गुरूजी! ईश्वर है - यह हम कैसे जानें?
उः जैसे - यह रूमाल है, तो किसी न किसी ने बनाया ही है। भले इसे बनाने वाले को तुमने नहीं देखा लेकिन इसे देखकर मानना पड़ता है कि इसको बनाने वाला कोई तो है। ऐसे ही सूरज, चाँद, तारे, पर्वत, नदियाँ, पृथ्वी आदि किसी मनुष्य के बनाये हुए नहीं हैं, फिर भी दिखते हैं तो उनका सर्जनहार परमात्मा ही हो सकता है।
अंकः (28-38)
परिप्रश्नेन
प्रः सदगुरू शरण का माहात्मय एवं सदगुरू की वास्तविक सेवा कैसे करनी चाहिए, वह बताईए?
उः इस विश्व में परमसत्य ब्रह्म है। उस ब्रह्म का उपदेश करके जो महापुरूष अपने शिष्य के भीतर छुपे हुए समस्त दुःखों के मूल कारण अज्ञान का नाश करते हैं उन्हें सदगुरू कहा जाता है। ऐसे समर्थ सदगुरू की शरण लेने से तथा परम आदर से उनकी सेवा करने से शिष्य के हृदय की अशुद्धियाँ क्रमशः दूर होती हैं। अंतःकरण पवित्र बनता है। परिणामस्वरूप उस शिष्य के हृदय में गुरूभक्ति प्रकट होती है। सदगुरू का वास्तविक स्वरूप निरावरण परमानंद की प्राप्ति के लिए शिष्य को सदगुरू की खूब भक्ति करनी चाहिए। सदगुरू की वास्तविक सेवा उनके उपदेश एवं सिद्धांत के अनुसार जीवन बनाने से ही हो सकती है क्योंकि आज्ञा सम नहीं साहेब सेवा।
प्रः उत्तम श्रद्धा किसे कहते हैं?
उः सदगुरू एवं सत्शास्त्र के उपदेश पर संशयरहित विश्वास को उत्तम श्रद्धा कहा गया है। ऐसी उत्तम श्रद्धावाला सदभागी व्यक्ति ही परमात्मा की अनन्य भक्ति प्राप्त कर सकता है। अनेक पुण्य संस्कारों के परिपक्व हुए बिना मनुष्य के हृदय में ऐसी श्रद्धा का उदय नहीं होता। अतः विवेकी पुरूषों को पापी विचारों एवं कर्मों से दूर रहकर शुभ कर्मों में प्रीति रखकर, उनके उपदेश को आदरपूर्वक सुनकर अपने अंतःकरण में श्रद्धा का उत्तरोत्तर विकास करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। श्रद्धा से रहित धार्मिक कार्य तथा साधन भी दंभरूप हो जाते हैं। अत- बारम्बार प्रभु से सुखदायिनी श्रद्धा के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।
प्रः मंत्रसिद्धि हेतु अनुष्ठान करने वाले साधक को किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए?
उः मंत्रसिद्धि हेतु साधक को अनुष्ठान के दिनों में बारह नियमों का पालन करना चाहिए जो क्रमशः निम्नानसार हैं -
(1) भूमिशयनः अनुष्ठान के दिनों में साधक को शयन के लिए पलंग का त्याग करके भूमि पर बिस्तर बिछाकर सोना चाहिए। बिस्तर पर गर्म शाल या कंबल बिछाएं ताकि जमीन का अर्थिंग न मिले।
(2) ब्रह्मचर्यः ब्रह्मचर्य के पालन के लिए गरम मसालों का त्याग करके साधक को अल्पाहार या फलाहार करना चाहिये। रात्रि भोजन में दूध का प्रयोग न करें।
(3) मौनः अनुष्ठान के दौरान साधक को मौन रहना चाहिए क्योंकि मौन न रखने से बातचीत में अधिक समय चला जाता है और नियमानुसार जप नहीं हो पाता।
(4) गुरूसेवाः मात्र अन्न-वस्त्र अर्पण करने से ही गुरूसेवा नहीं होती परंतु शिष्य का जीवन और उन्नति देखकर जो प्रसन्नता होती है वही वास्तविक गुरूसेवा है। सदगुरू के उपदेशानुसार आचरण करने से गुरूकृपा अपने-आप ही शिष्य के हृदय में बहने लगती है। इसलिए कहा गया हैः
गुरूकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम् ।
(5) त्रिकाल स्नानः अनुष्ठान के दिनों में त्रिकाल संध्या के पूर्व स्नान करना चाहिए। त्रिकाल संध्या में प्राणायाम भी करें।
(6) पापकर्म एव पापचेष्टाओं का परित्यागः सूक्ष्म जंतुओं की भी हिंसा न हो जाये, इसका ध्यान रखें। दूसरों का दिल दुःखता हो, ऐसी चेष्टाएँ भी न करें।
(7) नित्य पूजाः अपने सदगुरू या इष्टदेव की नित्य पूजा-अर्चना करें।
(8) नित्यदानः अपनी योग्यता के अनुसार प्रतिदिन कुछ न कुछ दान करना चाहिए। दान धन से ही हो सकता है, ऐसा न मानें। जिसके पास धन नहीं है वे शरीर द्वारा सेवा करके श्रमदान भी कर सकते हैं।
(9) प्रार्थनाः नित्य परमात्मा की स्तुति, स्तोत्रपाठ, कीर्तनादि करना चाहिए।
(10) नैमित्तिक पूजाः अनुष्ठान के दिनों में यदि नैमित्तिक पर्व आ जायें तो उस दिन आरम्भिक साधकों को विशेष पूजन करना चाहिए जैसे कि शिवरात्रि हो तो शिवपूजन, जन्माष्टमी हो तो कृष्ण पूजन। ब्रह्मज्ञानी गुरू मिल गये हों एवं ब्रह्मविचार का मार्ग खुल गया हो तो वह स्वतन्त्र है।
(11) गुरूनिष्ठाः जिन श्रीसदगुरूदेव से मंत्रदीक्षा मिली हो उनके श्रीचरणों में पूर्ण समर्पण एवं उनके वचनों में पूर्ण विश्वास होना चाहिए।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं..... ।
(12) मंत्रनिष्ठाः श्री सदगुरू के दिए हुए मंत्र में पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए। मंत्रनिष्ठा हेतु साधक का ऐसा दृढ़ निश्चय होना चाहिए कि दीक्षा के समय श्री सदगुरूदेव जी ने जो मंत्र मुझे दिया है उसी से मेरा परम कल्याण होगा। इस निश्चय के साथ मंत्रजाप किया जाए तो अवश्य मंत्र सिद्धि मिलेगी। मंत्रजाप मम दृढ़ विश्वासा।
प्रः सर्वोत्तम वैराग्य कौन-सा है?
उः सर्व दृश्य विकारी और विनाशी हैं। हिरण्यगर्भ का ऐश्वर्य भी विकारी और विनाशी हैं। यहाँ परब्रह्म परमात्मा के सिवाय कुछ भी अविकारी और अविनाशी नहीं है। ऐसी विवेकदृष्टि रखकर, हृदय की ओर से उदासीन रहकर परमात्म-परायण रहना उसे सर्वोत्तम वैराग्य कहा गया है। जो मनुष्य अपना परम कल्याण करना चाहता है उसे आदरपूर्वक सत्संग का श्रवण करना चाहिए, उपदेशानुसार मनन करना चाहिए और गुरूदेव के द्वारा बतायी गयी युक्तियों से एकांत में बैठकर प्रीतिपूर्वक ब्रह्मध्यान करना चाहिए। जो इस प्रकार का आचरण न करते हुए व्यर्थ की लौकिक या शास्त्रिय खटपटों में ही अपना समय व्यतीत करते हैं वे अपने दोनों लोक बिगाड़ते हैं। अतः साधक के खूब सावधानीपूर्वक अपने अमूल्य समय का सदुपयोग करना चाहिए।
प्रः वाणी के संयम के लिए साधक को कौन-सा उपाय करना चाहिए?
उः वाणी के देवता अग्निदेव बहुत तीक्ष्ण स्वभाव वाले हैं जिसकी वजह से वाणी बहुत ही बाह्यवेगवाली होती है अर्थात उसका निरर्थक वेग बहुत रहता है। शब्द बोलने से पूर्व बोलने वाले का वाणी पर स्वामीत्व होता है किंतु बोलने के बाद बोलने वाला कहे गये शब्दों का दास बन जाता है। वाणी का संयम न रख पाने के कारण इस पृथ्वी पर हुए अनेक अनर्थों का वर्णन ग्रंथों में आता है। निरर्थक बोलते रहने से वाणी का प्रभाव क्षीण हो जाता है। जो अधिक बोलता है वह झूठ भी अधिक बोलता है। अतः अपनी वाणी के संयम के लिए साधक को दिन में कुछ समय तक मौन रहने का भी अभ्यास करना चाहिए। कहा भी गया है, न बोलने में नौ गुण होते हैं।
प्रः दुनिया की अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा हिन्दू धर्म में इतने अधिक उत्सव क्यों आते हैं और पर्व उत्सवादि का हमारे मानस पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उः आज के वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य जब एक ही प्रकार का काम करता रहता है तब उसकी प्रसन्नता और उसका बौद्धिक विकास रूक जाता है। वैज्ञानिकों ने तो अब साबित किया किंतु भारत के मंत्रदृष्टा ऋषियों ने तो हजारो वर्ष पूर्व मनुष्य की मानसिक बीमारी को जान लिया कि यदि मनुष्य एक ही प्रकार का धर्म करता रहेगा तो ऊब जाएगा और उसका बौद्धिक विकास रूक जाएगा। अतः ऋषियों ने तन स्वस्थ हो, मन प्रसन्न हो एवं नित्य नवीन सात्त्विक आनंद की प्राप्ति हो इस हेतु से उत्सवों की व्यवस्था की होगी। उत्सव के दिनों में मनुष्य प्रकारान्तर से धर्म-कर्म में भाग लेता है, महापुरूषों के दर्शन करता है, उनकी सेवा करता है, सत्संग का श्रवण करता है, मंदिरो तथा उत्तम वातावरण में जाता है। उत्सव के दिन नज़दीक आने पर मनुष्य के अंतःकरण में आनंद एवं स्फूर्ति आने लगती है, सज्जनों के शुभ विचारों के प्रवाह द्वारा अंतःकरण पर होती शुभ असर का अनुभव करता है और उत्सव की समाप्ति के पश्चात अपने अंतःकरण की ग्रहण एवं धारण शक्ति के विकसित होने का अनुभव करता है। इन्हीं कारणों से हिन्दू धर्म में आनेवाले पर्व तथा उत्सव मनुष्य के मानस में आनंद, उत्साह एवं प्रसन्नता की वृद्धि करते हैं तथा आत्मोन्नति करने में मदद करते हैं।
प्रः महाभारत में प्रमाद को ही मृत्यु क्यों कहा गया है ?
उः प्रमाद ही मनुष्य को अपने कल्याणस्वरूप की विस्मृति करवाकर बारम्बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकता रहता है एवं अनेक प्रकार के दुःखों का अनुभव करवाता है। जहाँ प्रमादरूपी दुर्गुण है वहाँ ज्ञान, भक्ति एवं योग की प्राप्ति नहीं होती। प्रमाद मनुष्य का बहुत सा समय निरर्थक बना देता है। इसी कारण प्रमाद को मृत्यु कहा गया है। विवेकी साधक-साधिकाओं को अपने व्यवहार में किसी भी छोटे-बड़े काम में प्रमाद नहीं करना चाहिए किन्तु उत्साह एवं प्रसन्नता से कार्य करना चाहिए। आत्मज्ञान, आत्मानुभव में कतई प्रमाद न करें।
परिप्रश्नेन
पूज्य गुरूदेव के श्रीचरणों में साधको द्वारा पूछे गये प्रश्न।
साधकः स्वामीजी ! ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में विघ्न-बाधाएँ क्यों आती हैं?
पूज्य बापूः अरे भैया! बचपन में जब तुम स्कूल में दाखिल हुए थे तो क, ख, ग, आदि का अक्षरज्ञान तुरंत ही हो गया था कि विघ्न-बाधाएँ आयीं थीं? लकीरें सीधी खींचते थे कि कलम टेढ़ी हो जाती थी? जब साईकिल चलाना सीखा तब एकदम सीखे थे या इधर-उधर गिरकर सीखे थे? अरे, जब चलना सीखा था तब भी तुम एकदम सीखे थे क्या? नहीं। कई बार गिरे, कई बार उठे, चालनगाड़ी पकड़ी, अंगुली पकड़ी तब चलने के काबिल बने और अब तुम दौड़ सकते हो। अब मेरा सवाल है कि जब तुम चलना सीखे तो विघ्न क्यों आये? तु्म्हारा जवाब होगा किः बाबा जी! हम कमज़ोर थे, अभ्यास नहीं था।
ऐसे ही ईश्वर के लिए भी तुम्हारा प्रेम कमजोर है और चलने का अभ्यास भी नहीं है, इसलिए विघ्न आते और दिखते हैं। हालांकि साधक तो विघ्न-बाधाओं से खेलकर मज़बूत होता है। बाधाएँ कब बाँध सकी हैं। आगे बढ़ने वालों को। विपदाएँ कब रोक सकी हैं। पथ पर चलने वालों को।।
स्वामी रामतीर्थ कहते थेः हे परमात्मा! रोज़ मुसीबत भेजना। माता कुन्ती श्रीकृष्ण से प्रार्थना करती थीं-
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र जगदगुरो।
भक्तो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ।।
हे जगदगुरो! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्ति आती रहें, क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके हो जाने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता है।
(श्रीमदभागवतः 1.8.25)
एक बीज को वृक्ष बनने तक कितने विघ्न आते हैं? कभी पानी मिला कभी नहीं मिला, कभी आँधी आयी कभी तुफान आया, कभी पशु-पक्षिय़ों ने मुँह-चोंचे मारीं... ये सब सहते हुए भी वृक्ष खड़े हैं तो तुम भी सब सहन करते हुए ईश्वर के लिए खड़े हो जाओ तो तुम ब्रह्म हो जाओगे। भले आज तुफान उठकर के आयें। बला पर चली आ रही हो बलायें।।
भारत का वीर है दनदनाता चला जा।
कदम अपने आगे बढ़ाता चला जा।।
साधकः हे गुरूदेव! हमारा कल्याण कैसे होगा?
पूज्य बापू जीः जीवन्मुक्त आत्मज्ञानी संतों की शरण जाने से, उनका संग करने से ही कल्याण होगा। जिसके पास जो चीज़ होती है, वह वही देता है। शराबी का संग शराबी, जुआरी का संग जुआरी, भंगेड़ी का संग भंगेड़ी बना देता है, ऐसे ही ईश्वर प्राप्त महापुरूषों या संतो का संग करोगे तो वह संग परम कल्याणस्वरूपकी ओर ले जाएगा। उसी में तो कल्याण है। श्रीमदभागवत में राजा परीक्षित शुकदेव जी से पूछते हैं कि मनुष्य का कल्याण किसमें है? शुकदेव जी कहते हैं-
तस्मात्सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा।
श्रोतव्य कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम् ।।
हे परिक्षित! इसलिए मनुष्यों को चाहिए कि वे सब समय और सभी स्थितियों में अपनी संपूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि का ही श्रवण-कीर्तन और स्मरण करें।
भगवत्स्वरूप का स्मरण करे, चिंतन करे, कीर्तन करे - इसमें मनुष्य का कल्याण है। कीर्तन से, मंत्रजाप से तुम्हारे रक्त के कण बदलते हैं, रोग प्रतिकारक शक्ति बढ़ती है। शरीर तंदुरूस्त और मन प्रसन्न रहेगा तो शराब-कबाब, परस्त्रीगमन और आदि पापों की ओर प्रवृति न होगी। संयम रहोगे तो स्वस्थता, प्रसन्नता रहेगी और निजस्वरूप परमात्मा का ध्यान करोगे तो उससे बड़ा कल्याण क्या हो सकता है?
धन मिलने से कल्याण होता तो सब धनवान सुखी हो जाते। कुर्सी मिलने से कल्याण होता तो कुर्सीवाले सब सुखी हो जाते और कुर्सी बिना कल्याण होता तो बिना कुर्सी वाले सब निश्चिंत हो जाते। कल्याण......... कल्याण तो भाई! कल्याणस्वरूप ईश्वर को पाये हुए संतों के संग से ही होता है।
वर्षः 12
अंकः106
अक्तूबर 2001
परिप्रश्नेन?
संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से।
प्रः गुरूदेव! शिविर में ध्यान के दौरान कई साधकों को कई प्रकार की क्रियाएँ होती हैं, इसका कारण बताने की कृपा करें।
उः महापुरूषों की संप्रेक्षण शक्ति के द्वारा प्राणोत्थान होता है, फिर शक्ति जाग्रत होती है, फिर ध्यान करना नहीं पड़ता होने लगता है। अनन्त जन्मों के एवं इस जन्म के भी कुछ संस्कारो की परतेँ खुलने लगती हैं।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- योगी, तपस्वी, साधक प्रारम्भ में टेढ़े-मेढ़े मार्ग से जाते हैं लेकिन जब .यह राजमार्ग मिलता है तो परमपद को पाना आसान हो जाता है।
जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है तो जिसका चित्त दबा हुआ हो, अनुचित अनुशासन सहन किया हुआ हो, वैसे ही चित्त से दबाया हुआ रूदन, दबायी हुई शिकायतें प्रतिक्रियास्वरूप रूदन के रूप में बाहर निकलती हैं अथवा दबा हुआ विरह भी रूदन के रूप में बाहर निकलता है। जो दबे हुए संस्कार हैं वे रूदन के रूप में निकल जाते हैं तो भविष्य में हिस्टीरिया होने की संभावना नहीं रहती, मानसिक तनाव, पागलपन आदि का संभावना नहीं रहती।
कुण्डलिनी जाग्रत होने पर कई साधक हँसते हैं, कई नृत्य करते हैं, कई डोलते हैं.... ये सब योग क्रियाएँ हैं। कुण्डलिनी के जगने पर नाड़ी शोधन होता है। ये कुण्डलिनी शक्ति तन-मन के विकारो के निर्मूलन के साधक के रोम-रोम की शुद्धि के लिए आसन, प्राणायाम, मुद्राएँ आदि करवाती हैं।
टूने-फूने-टोटके आदि के साधकों में एवं कुण्डलिनी योग के साधकों में क्या अन्तर है?
टूने-फूने-टोटके आदि वालों के पास जैसे-तैसे लोग सिर धुनते हैं वैसे-वैसे उनका आहारविहार अशुद्ध-अपवित्र होता जाता है और ज्यों-ज्यों कुण्डलिनी सक्रिय होती है त्यों-त्यों आहारविहार पवित्र होता जाता है और मौन एवं एकांत की रूचि होती है। टूने-फूने वालों को तंबाकू, चाय, शराब, काम-विकार आदि की रूचि होती है, जबकि कुण्डलिनी के साधक को संसार के भोग और ऐश-आराम भी फीके लगते है।
मान लो किसी की नाभि के पास की नस-नाड़ियों का शोधन होता है तब ध्यान में उस महामाया कुण्डलिनी के द्वारा कूदने-फाँदने की क्रिय़ाएँ होने लगती हैं। ऐसे में दस्त और उल्टी भी हो सकती है और विजातीय द्रव्य शरीर से बाहर निकल जाते हैं। शरीर फूल जैसा हल्का हो जाता है।
मान लो, नेत्रों में कोई ऐसा विजातीय द्रव्य है जो तन्दुरूस्ती के विरूद्ध है तो नेत्रों की क्रिया होने लगेगी और रूदन होने लगेगा। रूदन के आँसूओं द्वारा वे विजातीय द्रव्य बाहर निकल जाएँगे। यदि कोई ये द्रव्य निकालने बैठेंगे तो न निकलेंगे, डाक्टर आप्रेशन करके भी न निकाल पाएँगे, लेकिन कुण्डलिनी के द्वारा वे सहज ही निकल जाएँगे।
प्राणोत्थान की क्रिया जब तक मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक होती है, तब तक शरीर के नीचे के भाग के आसन होते हैं। अनाहत चक्र में कभी रूदन, कभी हास्य आदि क्रियाएँ होती हैं। जब विशुद्धाख्या चक्र पर कुण्डलिनी शक्ति कार्य करती है तब ध्यान के समय गर्दन ऊपर होने लगती है। जब आज्ञाचक्र का शोधन होता है तब देवी देवता के दर्शन, गुरू के संकेत आदि मिलते हैं और जब कुण्डलिनी सहस्रार में कार्य करती है तो जैसे कागज पर लोहे के बारीक कण रखो और उसके नीचे लौह चुंबक घुमाओ तो लोहे के बारीक कण खड़े हो जाते हैं। वैसी क्रियाएँ सहस्रार में होती हैं। शास्त्रों में वर्णित ये सारी क्रियाएं हमको हुईं थीं।
आइन्सटाईन का मस्तिष्क सामान्य मनुष्य की अपेक्षा ज़्यादा विकसित था। इसलिए वह अणु विज्ञान की खोज कर सका। उसके दिमाग के सभी ज्ञानतंतु सक्रिय नहीं हुए थे फिर भी मनुष्य के मस्तिष्क को भी आश्चर्य हो जाए ऐसी खोजें उसने कीं। उसका मस्तिष्क लगभग 10 से 12 प्रतिशत विकसित था और आम आदमी का मस्तिष्क लगभग 2-3 प्रतिशत ही विकसित होता है। और उससे अधिक प्रतिशत के विकसित मस्तिष्क के धनी भी होते हैं।
सुचारू रूप से जप ध्यान आदि की सूक्ष्मतम-यात्रा करने वालों के अनाहत और सहस्रार केन्द्र का विकास होता है। अष्टासिद्धियाँ और नौ निधियाँ हाजिर हो जाती हैं। ऐसे कई ऋद्धि-सिद्धि के धनी योगी हुए, जिनमें हनुमान जी, ज्ञानेश्वर महाराज आदि जन्मजात योग सम्पन्न आत्माएँ थीं, फिर भी तत्त्व ज्ञान के लिए पूर्णता पाने के लिए, आत्मसाक्षात्कार के लिए उनसे भी ऊँची अवस्था में स्थित भगवान श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में हनुमान जी, निवृत्तिनाथ जी के चरणों में ज्ञानेश्वरजी व ज्ञानेश्वरदेव जी के चरणों में चांगदेव जी नतमस्तक हुए थे।
कुछ साधक सीधे तत्त्वज्ञान का मार्ग लेते हैं तो कुछ ऋद्धि-सिद्धि के मार्ग से गुज़रकर यात्रा करते हैं। बहुत सारे वहीं रूक जाते हैं लोकानुरंजन में। ज्ञानेश्वरी गीता के छठे अध्याय में इस महान योगक का वर्णन किया गया है। कुण्डलिनी जाग्रत होते ही साधक को आश्चर्यकारक अनुभव एवं क्रियाएँ होने लगती हैं। इसी आशय से भगवान श्रीरामचन्द्रजी के गुरू वशिष्ठजी का वाल्मीकि रामायण में उल्लेख आता है। श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण में भी काकभुशुण्डिजी व वशिष्ठ जी के संवाद में प्राणकला की बात आती है।
कुण्डलिनी योगोपनिषद् में भी इसकी भारी महिमा आती है। यह योग अति प्राचीन, रसमय, सहज, स्वाभाविक एवं सलामत योगमार्ग है। यदि कोई ईश्वर तक की यात्रा पूर्ण न भी कर पाए तो भी इस योग के पथिक की क्षमता ऐसी हो जाती है कि वह अनपढ़ होते हुए भी पढ़े हुओं को पढ़ा सकता है, निर्धन होते हुए भी धनवानों को धन व शांति दान कर सकता है। कोई पद, कोई अधिकार न होते हुए भी बड़े-बड़े पद व अधिकार वाले उसके चरणों में मस्तक झुकाकर अपना भाग्य मान लेते हैं!
ऐसी महिमा है इस शरणागति योग की! आहार-विहार की शुद्धि और ध्यान में रूचि रखने वाले का भी ध्यान-योग अपने-आप होने लगता है। विडंबना तो यह है कि ऐसी करूणा-कृपा बरसाने वाले समर्थ सदगुरूदेव होते हुए भी लोगों की रूचि नहीं है, यही कलियुग का प्रभाव है। लोगों की मति-गति नश्वर खिलौनों में, बाहर के चिंतन में ऐसी उलझ गयी है कि वे ऐसे संत के मिलने पर भी अपने भीतर के ताले खोलने में नहीं लग जाते।
जितना हेत हराम से, उतना हरि से होय।
कह कबीर वा दास का, पला न पकड़े कोय।।
कबीर, मीरा, रामकृष्ण परमहंस व नरेन्द्र के जीवन में इसी कुण्डलिनी योग के प्रसाद की खबरें मिलती हैं। चाहे आप किसी भी क्षेत्र में हों, विवेकानंद की नाई सन्यासी हों अथवा आपका जीवन मीरा या कबीर की नाई हो, यह यात्रा करने के आप अधिकारी हैं। तत्परतापूर्वक लग जायें तो रूचि बनती जाएगी, प्रीति बढ़ती जाएगी और सहज रहस्य खुलते जाएंगे।
सहस्रार चक्र की साधना हो तो ज्ञान-तंतुओं के विकास का प्रतिशत बढ़ता जाता है। अनपढ़ व्यक्ति भी पढ़े हुए को प्रभावित कर सकता है और उन्हें सुख सागर की तरफ ले जा सकता है। ऐसी आभा वहाँ उत्पन्न होती है।
यह कुण्डलिनी योग सिद्धयोग है, सहजयोग है। इसमें कई सिद्धियाँ आती हैं, कई चमत्कार होते हैं लेकिन उनमें फँसना नहीं चाहिए।
कुण्डलिनी योग के द्वारा अंतःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अंतःकरण में ही परमात्मा पाने की जिज्ञासा होती है। परमात्मा को पाने की जिज्ञासा जितनी तीव्र होती है, उतनी ही तीव्रता से साधक लक्ष्य तक पहुँचता है अर्थात परमात्मा का ज्ञान पा सकता है और कुण्डलिनी योग का यही वास्तविक लक्ष्य है।
त्त्महा विलासी जीवन जीने वाले सेठ चंदीराम ऐसे ए कि पत्नी हास्पिटल में भर्ती होती तो स्वयं भी उनके सान्निध्य के लिए भर्ती हो जाते थे। दो पत्नियाँ तो रवाना हो चुकी थीं भगवान के पास।
बूढ़े सेठ चंदीराम ने पानी की तरह पैसे बहाये, तब जाकर एक गरीब माँ-बाप अपनी 18 वर्षीया कन्या का विवाह उनके साथ कराने को तैयार हो गये। सेठ चंदीराम विवाह बंधन से पहले आशीर्वाद लेने के लिए साँई लीलाशाह जी आश्रम (डीसा) में गए। वहाँ संतकृपा प्राप्त हुई, कुण्डलिनी योग की साधना का चस्का लगा।
चंदीरामजी पूज्य बापूजी के ध्यान योग शिविर में आये, कृपा को पचाया, लग गए साधना में, कुछ महीनों में परिणाम का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ। उनके गहरे मन का काम राम में, भोग योग में बदला।
आज उनकी उम्र के कुटुंबी, साथी व सहपाठी कुछ तो मौत के मुँह में जा पहुँचे हैं। कोई अगर जिन्दा भी है तो बिस्तर पर है। दूसरी तरफ चंदीराम सेठ ने कुण्डलिनी योग से नाड़ी शुद्धि करके स्वास्थय लाभ कर लिया है। वे बिना दवाईयों के अभी भी घूमते हैं। उनके रिश्तेदार महंत चंदीराम के नाम से आज भी उनके दर्शन करने आते हैं।
वे स्वयं कहते हैं, मैं बीमारियों का थैला था, टी.बी., दमा, खाँसी, एलर्जी और छोटी-मोटी बीमारियों का घर था, बिना छाते के धूप में 5 कदम चलना भी मुश्किल था, धूप नहीं सह सकता था। अब तो कई कि.मी. सुबह-शाम युवकों की तरह टहलने जाता हूँ। एकान्त में साधना करता था तो शरीर से चंदन की खुश्बू आती थी। कभी अपनी शौच में से चंदन की तेज-तरार्र सुगन्ध आती थी। मैं चकित हो जाता था। शौच में से चंदन की सुगन्ध आती थी, इस विषय में पूज्य बापू जी से पूछने पर बापूजी ने योग ग्रन्थों का उदाहरण देते हुए कहा, ये अवस्थाएँ आती हैं और आगे बढ़ो। कफ और मद से भरा शरीर अब फूल जैसा हल्का हो गया है। विषय विकारों में लिप्त 55 वर्ष की उम्र वाला मेरे जैसा व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता कि ऐसा भी जीवन होता है, ऐसा भी नाड़ी-शोधन होता है! मैं धनभागी हूँ कि तीसरी शादी के निमित्त आशीर्वाद लेने के लिए डीसा के आश्रम में गया और वहाँ मुझे पूज्य बापू जी के दर्शन हुए, ध्यान में बैठने का अवसर मिला। ये सब ध्यान की गहराई और पूज्य बापू जी की कृपा को बिखेरने के बदले गहरा उतारने का अदभुत फल है। निगाहमात्र से शक्तिपात का सामर्थ्य रखने वाले सदगुरू कभी-कभी धरती पर मिलते हैं। लेकिन ईश्वरप्राप्ति की प्यास न होने के कारण हम उनकी कृपा को पूरा विकसित नहीं करते अपितु मूर्खतावश बिखेर देते हैं। सम्पादकद्ध
वर्षः 12
अंकः 103
जुलाई 2001
परिप्रश्नेन ?
प्रः महामंत्र कौन-सा है?
उः जिस मंत्र में तुम्हारी श्रद्धा होती हो, जिस मंत्र का अर्थ समझ सकते हो, वही महामंत्र है। मंत्र जितना छोटा होता है उतना ही, उसका सामर्थ्य ज़्यादा होता है।
वर्षः12
अंकः105
सितम्बर 2001
परिप्रश्नेन?
प्रः गुरूजी! एकाग्रता कैसे बढ़े?
उः एकाग्रता कोई बच्चों का खेल नहीं है। सब योग एकाग्रता के लिए हैं। जितना वातावरण खुला और शांत, जितना निश्चित समय, निश्चित आसन और निश्चित विधि होती है उतनी एकाग्रता बढ़ती है।
शरीर स्वस्थ रहे एवं एकाग्रता साध सकें इसके लिए पहले 8-10 अनुलोम-विलोम प्राणायाम करने चाहिए। फिर नासाग्र दृष्टि रखकर धीरे-धीरे श्वास की गति मंद होगी और एकाग्रता जल्दी हासिल होगी। कभी-कभी किसी नदी, सरोवर अथवा सागर के किनारे चले जाएं एवं उसकी लहरों को निहारें। निहारते-निहारते धीरे-धीर वृत्तियाँ शांत होने लगेंगी और एकाग्रता बढ़ेगी। हो सके उतना अधिक मौन रखें। बोलने का अभ्यास कम रखेंगे तो वाणी कम खर्च होगी, शक्ति बचेगी वह शक्ति एकाग्रता में काम आएगी।
शरीर और इन्द्रियों को लोलुप और बिखरा हुआ मत रखें। इतना परिश्रम न करें कि थक जाएं और इतना आलस्य भी न करें कि तमोगुणी हो जाएं, सोते रहें। शरीर थका हुआ होगा तो ध्यान के समय निद्रा, तंद्रा, लय और रसास्वाद आ जाएगा। उठेंगे तो लगेगा हाश! ध्यान से बड़ी शांति मिली।
प्रभात का ध्यान बड़ी मदद करता है। सुबह सूर्योदय से पूर्व स्नान करके पूर्वाभिमुख होकर बैठ जाएं, गहरे श्वास लें और प्रणव (›) का उच्चारण करें। निद्रा, तंद्रा, लय, रसास्वाद नहीं रहेगा और प्रभातकाल में महापुरूष ध्यान करते हैं उनके दिव्य परमाणुओं का भी लाभ मिलेगा।
शुरूआत में एकाग्रता नहीं भी लेकिन स्थान, आसन एवं समय निश्चित रखने से धीरे लाभ होने लगेगा। पहले 10 दिन तक 20 मिनट मानसिक जप-स्मरण करते हुए ध्यान में बैठें कि बीस मिनट तो बैठना ही है। फिर धीरे-धीर 25, 30, 40, 45.... मिनट बढ़ाते-बढ़ाते घण्टे तक पहुँच जाएँ। कुछ ही महीनों में एकाग्रता के अनुभव होने लगेंगे।
यह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन जैसा काम होता है उसके लिए वैसा समय और उत्साह चाहिए। आहार-विहार पर भी संयम होना चाहिए। लहसुन-प्याज समझदारी से खानेवाले को तो फायदा करते हैं फिर भी तमस की प्रधानता प्राणों को नीचे ले आती है। ध्यान-भजन में हानि होती है।
एकाग्रता करने से पूर्व सत्साहित्य पढ़ें, जो बल दे, पवित्र निर्भयता दे और एकाग्रता के लिए उत्साह दे। मुद्राएं कराये तो उसमें सहयोग करना चाहिए। प्राणशक्ति के उत्थान से मोटापा और शरीर में छुपे हुए दोष निकालने के लिए कभी विलक्षण आसन मुद्राएँ होने लगेंगी। वह महामाया कुण्डलिनी जन्मों के छुपे विचित्र संस्कारों को उखाड़कर बाहर फैंकेगी। कभी हास्य, रूदन और भिन्न-भिन्न क्रिया-कलाप करवा कर साधक के तन-मन-मति को स्वच्छ कर देगी।
यह ध्यानयोग की साधना कुण्डलिनी जागृति की साधना है।
प्रः जीवन का श्रेष्ठ सार क्या है?
उः चालू व्यवहार में हर घण्टे में दो-पाँच मिनट निकालकर अपने-आपसे पूछो कि ये व्यवहार हो रहा है और जो परिणाम आ रहा है अच्छा है या बुरा... आखिर क्या? बड़े-बड़े पद-प्रतिष्ठावाले भी आखिर में सब ले गये कि छोड़ गये ? कभी-कभी मौका मिले तो अपने तन-मन को श्मशान में ले जाएं और अपने को बताएं कि देख, आखिर में इस शरीर की भी यही दशा होगी! ऐसा करके अपना विवेक-वैराग्य जगाएँ। जब विवेक-वैराग्य जागेगा तो आत्म-साक्षातकार करने की रूचि होगी। ब्रह्मवेत्ता महापुरूषों के सान्निध्य में यदा-कदा जाते रहें, उनके श्रीचरणों में श्रद्धा-भक्तिपूर्वक बैठें और अपनी आत्मा को पहचानें। यही जीवना का श्रेष्ठ सार है।
प्रः स्वप्न में इष्ट-दर्शन अथवा भगवद्-दर्शन हों तो क्या समझें?
उः स्वप्न में भगवद्-दर्शन होते हैं ये अच्छी बात है। आध्यात्मिकता में प्रगति की निशानी है। स्वप्न में देवी-देवताओं के, इष्ट के, मंदिर के, प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं तो समझें आपकी अंतस चेतना को परमात्मा की प्यास है और वह प्यास बढ़ती रहे ऐसा प्रयत्न करें। वह प्यास कहीं मंदिर और मूर्ति तक ही सीमित न रह जाए, वरन् परमात्मा की प्यास जगाकर सदगुरू को खोज लो। स्वप्न में शिव दर्शन होते हैं तो जाग्रत में भी दर्शन हों ऐसे संकल्प करो और जाग्रत में भी जैसी मूर्ति मंदिरों में देखी है वैसे नहीं, वरन् सर्वत्र शिवतत्त्व व्याप्त है ऐसे शिव के दर्शन हों वैसा प्रयत्न करें।
वर्षः 15
अंकः 142
अक्तूबर 2004
परिप्रश्नेन...?
प्रः प्रातः स्मरणीय बापू जी! संसार की इच्छाएँ कैसे छूटें?
पूज्य बापू जीः इच्छाओं को मिटाने के लिए सतत मन का निरीक्षण करते रहो। उसे तुच्छ विषय-विकारों की ओर जाने से रोकते रहो। जैसे पंखा घूमता है किंतु यदि आप उसका बटन बंद कर दें, उसका विद्युत-सम्पर्क काट दें तो पंखे का घूमना कब तक जारी रहेगा? ऐसे ही आप मन के साथ अपना सम्बन्ध काट दोगे तो विकारी इच्छाएँ-वासनाएं भी आप पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकेंगी।
आप जब वासनापूर्ति के लिए मन को सत्ता देते हो तो तभी इच्छाएँ-वासनाएं आपको दबाती हैं। मन को सत्ता देने से स्वीकृति देने से ऐहिक जगत के नश्वर भोग आप पर हावी हो जाते हैं, जबकि मन के द्रष्टा बनने से आपकी जीत हो जाती है।
प्रः प्यारे सदगुरूदेव जी ! किन सदगुणों से युक्त साधक द्रुतगति से साधना-मार्ग में आगे बढ़ता है ?
पूज्य बापूजीः साधन में प्रेम होना, साधन में ज़रा भी परिश्रम प्रतीत न होना, महापुरूषों में श्रद्धा होना और भगवान पर विश्वास होना – इन चार सदगुणों से साधक द्रुतगति से अपने साधना-मार्ग में आगे बढ़ता है।
प्रः मंगलमूर्ति बापूजी ! साधक साधना में शीघ्र प्रगति कैसे कर सकता है?
पूज्य बापूजीः साधक अपने ऊँचे उद्देश्य की स्मृति बनाये रखे, व्यर्थ की बातों में अपना समय न गंवाये और जो कार्य करे उसे तत्परता से पूर्ण करे। कर्म तो करे लेकिन कर्तापन का गर्व न आये और लापरवाही से कर्म बिग़ड़े नहीं इसकी सावधानी रखे। जीवन में केवल ईश्वर को ही महत्व दे। व्यवहार पवित्र बनाए रखे। - इन बातों को अपने जीवन में अपनाने वाला साधक अपने ऊँचे लक्ष्य को पाने में अवश्य कामयाब हो जाता है। इस ऊँचाई से बढ़कर त्रिभुवन में और कोई ऊँचाई नहीं है। जिस अनुभव में ब्रह्मा-विष्णु-महेश परितृप्त हैं, जिसके आगे इन्द्र का राज-वैभव भी तुच्छ है उसी आत्मानुभाव को वह प्राप्त कर सकता है।
प्रः शास्त्रमर्मज्ञ गुरूदेव ! जीवन में ऐसा क्या करें कि परमात्म-प्रेम बढ़े?
पूज्य बापूजीः सदैव भगवच्चरित्र का श्रवण करो। महापुरूषों की जीवन-गाथाएँ, ज्ञान की गाथाएँ सुनो या पढ़ो। इससे भक्ति बढ़ेगी तथा परमात्म-ज्ञान एवं वैराग्य बढ़ाने में मदद मिलेगी। भगवान की स्तुति-भजन गाओ या सुनो। अकेने बैठो तब भजन गुनगुनाओ। अन्यथा मनखाली रहेगा तो उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर – ये विकार आ जाएंगे। कहा भी गया है कि खाली दिमाग शैतान का घर। जब परस्पर मिलो तब परमेश्वर की, परमेश्वर-प्राप्त महापुरूषों की चर्चा करो। प्रभु की स्मृति करते-करते चित्त को आनंदित करने की आदत डाल दो।
प्रः कृपया यह बताइये कि स्वस्थ, सुखी एवं सम्मानित जीवन जीने के लिए क्या करें?
पूज्य बापूजीः स्वस्थ जीवन जीने के लिए योग के जानकार महापुरूष के सान्निध्य में जाकर उनसे यौगिक प्रयोग सीखें और करें। सुखी जीवन के लिए ध्यान योग द्वारा आत्मसुख पायें। सम्मानित जीवन जीने के लिए दूसरों को मान दें, सर्वहित के कार्य करें।
प्रः स्वरूपनिष्ठ बापूजी ! महाशय किसे कहा जाता है?
पूज्य बापू जीः जिसके जीवन का आशय (उद्देश्य) महान हो, उसे महाशय कहा जाता है। महान आशय है अपने जीवन-तत्त्व को जानना। जो अपने चित्त पर किसी भी प्रकार की इच्छा-वासना की रेखा न खींचे अथवा पहले से खींची हुई रेखा को जिसने हटा दिया है, वह महाशय है। ऐसा महाशय ही समस्त दृश्य जगत को कल्पनामात्र मान कर ब्रह्मरूप में स्थित होता है।
प्रः ब्रह्मनिष्ठ बापू जी! सत्कर्म से भी सत्संग श्रेष्ठ क्यों कहा गया है ?
पूज्य बापू जीः दूसरों के दुःख की निवृत्ति के लिए उन्हें ऐहिक साधन देना-दिलाना अच्छा है लेकिन इससे भी बढ़िया तो यह है कि उनको आत्मानुभव से तृप्त संत-महापुरूषों का सत्संग लाभ दिलाना।
स्वामी विवेकानंद जी कहते थेः तुम किसी भूखे को भोजन कराते हो, प्यासे को पानी पिलाते हो, किसी को अच्छे रास्ते लगाते है, किसी हारे हुए में हिम्मत भरते हो, यह परोपकार तो है, बढ़िया तो है लेकिन इससे भी श्रेष्ठ है किसी को सत्संग देना-दिलाना और सत्संग दिलाने में भागीदार होना। जो किसी को सत्संग देने दिलाने में भागीदार होता है वह मानव-जाति का परम हितैषी है, क्योंकि सदा के लिए सब दुःखों की निवृत्ति भगवतत्त्व के ज्ञान एवं भगवत्स्वरूप के ध्यान से ही संभव है।
आप भगवत्कथा का श्रवण स्वयं तो करें ही, साथ ही अन्य लोगों को भी उसमें सम्मिलित करें ताकि सब भगवत्कथा के श्रवण-मनन द्वारा दुःखों के विनिर्मुक्त होकर अपने जीवन को दिव्य बना सकें। यही श्रेष्ठ कर्म है, यही श्रेष्ठ धर्म है और यह सत्वस्वरूप ईश्वर में टिकानेवाला कर्म ही सत्कर्म है।
प्रः आत्मानंद में मस्त प्यारे सदगुरूदेव ! गुरू और सदगुरू में क्या अंतर है ?
पूज्य बापू जीः गुरू उन्हें कहते हैं जिनसे मनुष्य कोई ऐसी नयी बात सीखे, जिसे वह नहीं जानता, इसीलिए मनुष्य उन सभी को गुरू मान सकता है जिनसे उसे कुछ सीखने को मिले। अवधूत जी (दत्तात्रेय) ने इसी दृष्टि से 24 गुरू बनाये थे। सदगुरू इन सारे गुरूओं से विलक्षण होते हैं। वे सत्वस्वरूप परमात्मा के पथ को जानते हैं। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य उन सदगुरू को परम गुरू मानकर सब कुछ उनके चरणों पर न्योछावर कर देता है, क्योंकि वह उनसे ऐसी चीज़ पाता है जिसके सामने संसार की सभी चीज़ें, सभी स्थितियाँ बहुत ही कम कीमत की, अत्यंत तुच्छ, बहुत ही छोटी रह जाती हैं।
सदगुरू ही गोविन्द से मिलाते हैं, वे ही शिष्य के दुःखों का पूर्णतया हरण करते हैं इसीलिए शिष्य की दृष्टि में सदगुरू ईश्वर से बढ़कर सेव्य हैं। इसी से शास्त्रों एवं संतों ने सदगुरू की खूब महिमा गायी है और सदगुरू की शरणागति के बिना भगवान की प्राप्ति को अति दुर्लभ व असंभव कहा है।
प्रः मानव जीवन में सत्संग की महत्ता समझाने की कृपा कीजिये।
पूज्य बापू जीः सत् अर्थात परमात्मा और संग अर्थात सान्निध्य-सेवन। सत्संग यानि परमात्म-सान्निध्य से लाभान्वित होना, उसकी अनुभूति करना।
जो सत्संग नहीं करता वह कुसंग अवश्य करता है। जो सत्कर्म नहीं करता, वह कुकर्म अवश्य करता है और जो ईश्वरपरायण जीवन नहीं बिताता वह शैतान सा जीवन अवश्य गुजारता है। जिसको अपने जीवन के मूल्य का पता है वह सत्संग का महत्व जानता है। जिसे अपने जीवन के मूल्य का पता नहीं, वह सत्संग का मूल्य नहीं समझता।
जो सत्संग में आते हैं वे नश्वर संसार से प्रीति हटाकर परमात्मा में प्रीति बढ़ाने की रीति जान लेते हैं। वे संसार के शोक-क्षोभ से प्रभावित नहीं होते, उनसे अछूते रह जाते हैं। सत्संग स्वभाव बदलने की कुंजी है। सत्संगी की सूझबूझ, विवेक और सावधानी बढ़ जाती है, चिंताएँ कम हो जाती हैं, चित्त निरहंकार एवं निर्मोही होकर सदगुणों से सम्पन्न होने लगता है, हृदय में आनन्द की अनुभूति होने लगती है और आंतरिक जीवन सुखमय होने लगता है।
भप्रिय जिज्ञासु पाठक बंधुओ, हमारे पुराणों-सत्शास्त्रों आदि का प्रणयन प्रश्नोत्तर के माध्यम से ही हुआ है। संसार के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ श्रीमदभगवदगीता का आविर्भाव अर्जुन के प्रश्नों और भगवान के उत्तरों से ही हुआ है।
लोकमांगल्य की भावना से युक्त, धर्म, नीति, अध्यात्म अथवा व्यवहार सम्बंधी प्रश्न आप हमें सहर्ष प्रेषित कर सकते हैं। योग्य और बहुसंख्यक लोगों के लिए उपयोगी पाये जाने पर इस स्तम्ब में उत्तर के साथ प्रकाशित किया जाएगा।
(नोटः कृपया इस स्तम्भ के लिए व्यक्तिगत प्रश्न लिखने का कष्ट न करें।)
वर्षः 14
अंकः 135
मार्च 2004
अध्यात्म-प्रश्नोत्तरी
(विद्यार्थी शिविर, रतलाम, दिसम्बर 2002 में पूज्य बापू जी ने आध्यात्मिक प्रश्नोत्तरी का आयोजन करवाया था। पूज्य बापूजी द्वारा विद्यार्थियों के बीच भारतीय दर्शन के गूढ़ ज्ञान को सहज-सरल शैली में प्रस्तुत करना प्राचीन ऋषिकुल-परंपरा की याद ताज़ा कर रहा था। आईये, हम भी उस ज्ञान का आस्वादन करें।)
वेदांतनिष्ठ सदगुरूदेव ! कृपया यह बतायें कि अध्यास क्या है ?
पूज्यश्रीः वास्तव में हम हैं चेतन, किंतु हाड़-मांस के शरीर को मैं मानते-मानते देह का अध्यास हो गया है। दुःख का निमित्त बाहर बना, दुःखाकार वृत्ति अंतःकरण में बनी और दुःखाध्यास हो गया। अरे, तू दुःखी है? पैर में दुःखता है। तेरे पैर में दुःखता है न ? पैर में दुःखता नहीं था तब भी तू था। पैर में दुखने की वृत्ति बन गयी। वृत्ति को वृत्ति नहीं जाना, पैर में दुखता है – यह नहीं जाना, इसलिए पैर का और वृत्ति का अध्यास हो गया।
पूज्य बापूजी ! अध्यस्त, अध्यारोप और अपवाद के विषय में बताने की कृपा करें।
पूज्यश्रीः वस्तु अपनी मूल स्थिति को न छोड़े और उसमें दूसरी वस्तु की प्रतीति हो तो उस दूसरी वस्तु को बोलते हैं अध्यस्त। जैसे रस्सी है। अँधेरे में रस्सी में साँप अध्यस्त हुआ। साँप दिख रहा है रस्सी के आधार पर। रस्सी साँप बनी नहीं, लेकिन रस्सी के बिना साँप नहीं दिखेगा तो साँप रस्सी में अध्यस्त हो गया। रस्सी में साँप का अध्यारोप कर दिया। किसी ने कहाः यह तो पानी का रेला है तो उसने रस्सी पर पानी के रेले का अध्यारोप कर दिया। किसी ने कहा कि यह तो जंगल की लकड़ी, डण्डा है, तो उसने डण्डे का अध्यारोप कर दिया। कोई कह दे कि, अरे! यह तो रस्सी है तो अध्यस्त का अपवाद हो गया।
अध्यारोप अपनादाभ्यां निष्प्रपंचे प्रपंचविद्धि।
पहले शास्त्र अध्यारोप कराते हैं, फिर अपवाद करा देते हैं।
पूज्यश्री ! अधिष्ठान क्या है ? यह बताने की कृपा करें।
पूज्यश्रीः अधिष्ठान है आत्मा और अध्यस्त है मन, बुद्धि, शरीर। अधिष्ठान के बिना अध्यस्त नहीं रह सकता। रस्सी के बिना भ्रांति का साँप नहीं रह सकता। सीप के बिना चाँदी नहीं रह सकती। पानी के बिना तरंग, बुलबुले और झाग नहीं रह सकते। ऐसे ही तुम्हारे चेतन आत्मा के बिना मन, बुद्धि और अहंकार नहीं रह सकते।
विकार अध्यस्त हैं, तुम अधिष्ठान हो। दुःख अध्यस्त है, तुम उसको देखने वाले हो। सुख अध्यस्त है, तुम उसके द्रष्टा-साक्षी हो। सुख से जुड़े तो भोगी बन जाओगे। दुःख से जुड़े तो निराश हो जाओगे। दुःख के भोगी हताश-निराश होते हैं और सुख के भोगी खोखले होते हैं। तुम्हें न निराश होना है, न खोखला होना है। तुम्हें तो प्रभु के स्वरूप के जानकर मुक्तात्मा होना है।
ब्रह्मनिष्ठ बापूजी ! विवर्त और परिणाम में क्या अंतर है ? यह बताने की कृपा करें।
पूज्यश्रीः वस्तु में अपने मूल स्वभाव को छोड़े बिना ही अन्य वस्तु की प्रतीति होना यह विवर्त है, रस्सी में साँप दिखना विवर्त है। ऐसे ही अखंड ब्रह्म परमात्मा में जगत विवर्त है। दूध से दही बनने की क्रिया को परिणाम कहते हैं।
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Merits of Pepsi Cola

लहर नहीं ज़हर हूँ मैं......
पेप्सी बोली कोका कोला !
भारत का इन्सान है भोला।
विदेश से मैं आयी हूँ,
साथ मौत को लायी हूँ।
लहर नहीं ज़हर हूँ मैं,
गुर्दों पर बढ़ता कहर हूँ मैं।
मेरी पी.एच. दो पॉइन्ट सात,
मुझ में गिर कर गल जायें दाँत।
जिंक आर्सेनिक लेड हूँ मैं,
काटे आँतों को वो ब्लेड हूँ मैं।
मुझसे बढ़ती एसिडिटी,
फिर क्यों पीते भैया-दीदी ?
ऐसी मेरी कहानी है,
मुझसे अच्छा तो पानी है।
दूध दवा है, दूध दुआ है,
मैं जहरीला पानी हूँ।
हाँ दूध मुझसे सस्ता है,
फिर पीकर मुझको क्यों मरता है ?
540 करोड़ कमाती हूँ,
विदेश में ले जाती हूँ।
शिव ने भी न जहर उतारा,
कभी अपने कण्ठ के नीचे।
तुम मूर्ख नादान हो यारो !
पड़े हुए हो मेरे पीछे।
देखो इन्सां लालच में अंधा,
बना लिया है मुझको धंधा।
मैं पहुँची हूँ आज वहाँ पर,
पीने का नहीं पानी जहाँ पर।
छोड़ो नकल अब अकल से जीयो,
जो कुछ पीना संभल के पीयो।
इतना रखना अब तुम ध्यान,
घर आयें जब मेहमान।
इतनी तो रस्म निभाना,
उनको भी कुछ कस्म दिलाना।
दूध जूस गाजर रस पीना,
डाल कर छाछ में जीरा पुदीना।
अनानास आम का अमृत,
बेदाना बेलफल का शरबत।
स्वास्थ्यवर्धक नींबू का पानी,
जिसका नहीं है कोई सानी।
तुम भी पीना और पिलाना,
पेप्सी अब नहीं घर लाना।
अब तो समझो मेरे बाप,
मेरे बचे स्टॉक से करो टॉयलेट साफ।
नहीं तो होगा वो अंजाम,
कर दूँगी मैं काम तमाम।
(लेखकः गिरीश कुमार जोशी, उदयपुर (राज.)
(इसको हर कोई छपा सकता है।)
स्रोतः ऋषि प्रसाद जनवरी 2008.